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________________ १७० जो सहता है, वही रहता है ___अहिंसा अनंत आनंद का सतत प्रवाही स्रोत है, फिर भी मनुष्य का स्वभाव उसमें सहजतया नहीं रमता। इसका कारण नियंत्रण-शक्ति का अभाव है। मन, वाणी और शरीर की निरंकुश वृत्तियों का प्रतिरोध करने की आत्मशक्ति का जितना कम विकास होता है, उतना ही अधिक हिंसा का वेग बढ़ता जाता है। हिंसा की मर्यादाएँ, कृत्रिम होती हैं। उनमें तड़क-भड़क और लुभावनापन भी होता है। अहिंसा में दिखावटीपन या बनावटीपन नहीं होता। वह आंतरिक मर्यादा है। वह आती है, तभी व्यक्ति का व्यक्तित्व एवं जीवन की स्वतंत्रता निखरती है। आचार्य तुलसी ने अपने एक प्रवचन में कहा, 'आत्मानुवर्ती-नियमानुवर्ती, यानी अहिंसक ही वास्तव में स्वतंत्र है।' अभय का मूल अहिंसा ___ मनुष्य बुराई करते नहीं सकुचाता। इसीलिए दुनिया का प्रवाह विकार की ओर है। भोग और इंद्रियों की दासता बढ़ रही है। कहा जाता है कि प्रकृति पर विजय पाने के लिए मनुष्य सफल अभियान चला रहा है। यह तथ्यहीन दावा है। पानी और अग्नि पर विजय प्राप्त करना ही प्रकृति पर विजय नहीं है। शरीर, वाणी और मन को जीते बिना प्रकृति नहीं जीती जा सकती। स्व-विजय के बिना प्रकृति-विजय वरदान न बन अभिशाप बन जाती है। स्व-विजय का प्रयत्न बहुत थोड़ा होता है, इसलिए भोग सता रहे हैं, विकार और हिंसा बढ़ रही है। एक की दूसरे के साथ स्पर्धा है। वातावरण भय से भरा है। अहिंसा का दूसरा पहलू अभय है। अपनी मौत से डरना भी हिंसा है। जो दूसरों को पराधीन रखना चाहते हैं, हीन बनाए रखना चाहते हैं, जातिगत भेदभाव रखते हैं, छुआछूत, ऊँच-नीच और काले-गोरे के पचड़े में पड़े हुए हैं, वे अभय नहीं हैं, शांत नहीं है। जिनकी भोग में लिप्सा बढ़ी हुई है, जो परिग्रह के पुतले और शोषण के पुंज बने हुए हैं, उनसे पूछिए, उन्हें कितनी शांति है? शांतिपूर्ण जीवन वही बिता सकता है, जो बुराइयों से दूर है। बुराई से दूर वही रह सकता है, जिसमें प्रतिरोधात्मक शक्ति या स्व-नियंत्रण का पर्याप्त विकास होता है। समानता की स्थापना धर्म को समझने के लिए जितना व्यक्ति को समझना जरूरी है, उतना ही जरूरी है समाज को समझना। धर्म के साथ कर्म का सिद्धान्त जुड़ा हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003054
Book TitleJo Sahta Hai Wahi Rahita Hai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size11 MB
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