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________________ आलंबन छूट जाए, केवल चैतन्य का अनुभव चलता रहे । यह निर्विकल्प ध्यान सिद्ध की उपासना पद्धति है । जब निर्विकल्प ध्यान की स्थिति बनती है, सिद्ध की उपासना शुरू हो जाती है । बाधक है मन समस्या यह है- हम मन के साथ जीते हैं। नैतिक जगत में मन के साथ जीना बहुत बड़ा विकास है और आध्यात्मिक जगत् में मन के साथ जीना बड़ी समस्या है | मन बहुत बाधक बनता है अध्यात्म की साधना में । स्मृतियों का तांता लगा रहता है । यह अतीत का भूत हमारा निरंतर पीछा कर रहा है। दूसरा भूत लगा हुआ है या नहीं किंतु यह भूत सबके साथ लगा हुआ है। इस भूत से कैसे छुड़ाएं। जिस दिन भूत छूट जाएगा, एक अलग दुनिया का दर्शन होगा । दूसरी बाधा भविष्य की कल्पना है । भूत और भविष्य | स्मृति और कल्पना- दोनों से कैसे बचें ? उसका उपाय है भाषायंत्र को निष्क्रिय बना देना । जब तक स्वर निष्क्रिय नहीं बनता तब तक भूत और भावी से बचा नहीं जा सकता । निर्विकल्प ध्यान की पृष्ठभूमि मन को निष्क्रिय बनाने का एक प्रयोग है कण्ठ का कायोत्सर्ग | दूसरा प्रयोग है - दोनों होठों को बंद करें, दांतों को एक दूसरे के आस-पास सटाएं। भींचें नहीं, जोर भी न लगाएं। केवल स्पर्श मात्र हो । जीभ को तालु की ओर ले जाएं अथवा दांत की जड़ पर, जहां कठोर तालु शुरू होती है, टिका दें। जीभ की चंचलता का अर्थ है मन की चंचलता । भाषा की चंचलता की तरंगें जीभ पर उतरती हैं और वे जीभ को चंचल बनाती हैं। जब तक स्वरयंत्र की सक्रियता और जीभ की चंचलता है तब तक स्मृति और कल्पना से छुटकारा नहीं हो सकता । इनसे मुक्ति तभी संभव है, जब हम स्वर-यंत्र को निष्क्रिय बनाएं, जीभ की स्थिरता साधें । हम खेचरी मुद्रा करें। जीभ को उलट कर तालु की ओर ले जाएं, जीभ को दांतों की जड़ में टिकाएं। जीभ ८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only जैन धर्म के साधना -सूत्र www.jainelibrary.org
SR No.003052
Book TitleJain Dharma ke Sadhna Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages248
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size10 MB
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