SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ साध्वाचार के सूत्र अधिक विषयी) १३. मूढ़ (हिताहित न सोच सकने वाला) १४. ऋणात कर्जदार १५. जुंगित (जाति, कर्म एवं शरीर से हीन व्यक्ति) १६. अवबद्ध (पराधीन) १७. भृतक (नौकर) १८. शैक्षनिस्फोटिका (मातापितादि स्वजनों की रजामन्दी के बिना भगाकर लाया हुआ अथवा भागकर आया हुआ व्यक्ति)।' दीक्षा के अयोग्य बीस प्रकार की स्त्रियों में अठारह तो पुरुषों के समान ही हैं और दो ये हैं-गर्भवती एवं छोटे बच्चों वाली। दीक्षा के अयोग्य पुरुष-स्त्रियों का यह विवेचन उत्सर्ग-मार्ग की अपेक्षा से है। विशेष परिस्थिति में योग्य गुरु सूत्र-व्यवहार के अनुसार यथासंभव दीक्षा दे सकते प्रश्न ४. वैराग्य कितने प्रकार का है? उत्तर-पांच इन्द्रियों के विषय-भोगों से उदासीन–विरक्त होना वैराग्य है, वह तीन प्रकार का माना गया है-१. दुःखगर्भित २. मोहगर्भित ३. ज्ञानगर्भित। १. किसी प्रकार का संकट आने पर विरक्त होकर जो कुटुम्ब आदि का त्याग किया जाता है, वह दुःखगर्भित-वैराग्य है एवं जघन्य है, जैसे अनाथी मुनि आदि। २. इष्टजन के मर जाने पर मोहवश मुनिव्रत धारण किया जाता है, वह मोहगर्भित वैराग्य है एवं मध्यम है जैसे- स्थूलिभद्र आदि। ३. पूर्व सस्कार या गुरु के उपदेश से आत्मज्ञान होने पर जो संसार का त्याग किया जाता है, वह ज्ञानगर्भित वैराग्य है। इसे उत्तम माना गया है। प्रश्न ५. दीक्षा लेने के कितने कारण है? उत्तर-दीक्षा लेने के दस कारण माने गये हैं, उन्हें लक्ष्य करके शास्त्रों में दस प्रकार की प्रव्रज्या (दीक्षा) कही है। यथा १. छन्दा-अपनी इच्छा से गोविन्दवाचकवत् एवं दूसरों के दबाब से भावदेववत् ली गई दीक्षा छन्दा है। २. रोषा-शिवभूतिवत् रुष्ट होकर ली गई दीक्षा रोषा है। ३. परियूना-लकड़हारे की तरह गरीबी से हैरान होकर ली गई दीक्षा परिघुना है। १. प्रवचनसारोद्वार १०७ द्वार गाथा ७६०- ३. कर्तव्य कौमुदी, दूसरा भाग, पृष्ठ ७०७६१ ७१, श्लोक ११८-११६ वैराग्य प्रकरण २. (क) प्रवचनसारोद्वार १०८ गा.७६२-६३ द्वितीय परिच्छेद। (ख) निशीथ ११/८५-८६ ४. स्थाना. १०/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003051
Book TitleSadhwachar ke Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnishkumarmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2011
Total Pages184
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy