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________________ ७४ सिद्धान्त और व्यवहार का भेद आज यह वर्ण व्यवस्था जाति प्रथा में बदल गई है। अपने मूल रूप में भी इस व्यवस्था में अनेक कमियां रही हैं। सबसे बड़ी कमी है- ऊंच-नीच का भेदभाव | यह इस व्यवस्था का अंग बना रहा है। सिद्धान्ततः चारों वर्ण एक ही समाज - पुरुष के चार अंग हैं और इसलिए चारों का समान महत्त्व है किंतु व्यवहार में शूद्र के प्रति द्विज वर्णों का दृष्टिकोण ठीक नहीं रहा । वर्ण व्यवस्था में शूद्र के प्रति अनादर का भाव देखने को मिलता है। ऋग्वेद में कहा है कि शूद्र परम पुरुष के पांव से उत्पन्न हुआ है। इस आधार पर शूद्र को नीचा मान लिया गया। यद्यपि यह व्याख्या युक्तिसंगत नहीं थी । परम पुरुष के चरण पवित्र होते हैं, उससे उत्पन्न होने वाले को अछूत मानना युक्तिसंगत नहीं था । ऋग्वेद में शूद्र की उत्पत्ति पाँव से मानी गई है। यदि पाँव से उत्पन्न होने के कारण ही शूद्र अपवित्र होता तो उसी कारण भूमि को भी अपवित्र माना जाना चाहिए था, किंतु भूमि को माँ माना गया है। इतना ही नहीं, यजुर्वेद में बढ़ई, रथकार, कुम्भकार और लोहारों को नमस्कार किया गया है । शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि शूद्र का संबंध पूषा देवता से है और यह पूषा देवता ही सबका पोषण करता है। यह सब होने पर भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इतिहास में शूद्र के साथ दुर्व्यवहार की स्थिति बनी रही है। आज के संदर्भ में वर्ण व्यवस्था के साथ एक यह सीमा भी है कि उस व्यवस्था का जन्म राजतंत्र में हुआ और आज हम प्रजातंत्र में जी रहे हैं । प्रजातंत्र में इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि शासन का अधिकार या कर्तव्य क्षत्रिय का है। न ही आज इस बात का कोई अर्थ है कि युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है । महाप्रज्ञ - दर्शन वर्णाश्रम व्यवस्था का सामाजिक-आर्थिक तंत्र वस्तुस्थिति यह है कि वर्ण व्यवस्था का आधार मुख्यतः अर्थोपार्जन के लिए अपनाये जाने वाले व्यवसाय रहे। ये व्यवसाय वंश परम्परागत थे और बहुत जटिल नहीं थे । पुत्र पिता से ही अपने परम्परागत व्यवसाय की शिक्षा प्राप्त कर लेता था और पिता के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उसका व्यवसाय संभाल लेता था । व्यवसायिक शिक्षा प्राप्त करने की, नौकरी ढूंढ़ने की या नया व्यवसाय खड़ा करने की चिंता उसे नहीं करनी पड़ती थी । सम्मिलित परिवार की छाया में वह निश्चिन्त भाव से पैतृक कार्य में सबका हाथ बंटाता और बदले में उसके जीवन की सब आवश्यकतायें पूरी होती थी । बेरोजगारी का प्रश्न नहीं था। आज यह संभव नहीं है । सम्मिलित कुटुम्ब टूट गये हैं। नये-नये व्यवसाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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