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________________ ७२ महाप्रज्ञ - दर्शन दौड़ में ही पिछड़ गई। धर्म को तो पहले ही नकार दिया गया था। धर्म कहीं शोषण का भी पोषण करता रहा हो, किंतु प्रतिकूल परिस्थिति में मनुष्य को संबल भी प्रदान करता रहा है। इसके अतिरिक्त आज भले ही हम नैतिकता को धर्म से अलग करके स्वतंत्र रूप में देख रहे हैं, किंतु हजारों साल से नैतिकता किसी न किसी रूप में धर्म के साथ जुड़कर ही कार्य करती रही है। धर्म के खिसकने के साथ नैतिकता का ऐतिहासिक आधार भी खिसक गया । धर्मविहीन इहलौकिकता तथा नैतिकता यह नहीं समझा पाई कि यदि कोई ऐसा सुरक्षित उपाय हो सके कि व्यक्ति राज्य की पकड़ में आये बिना धन संग्रह के लिए अनुचित उपाय बरत सके, तो उसे ऐसा क्यों नहीं करना चाहिए । इस प्रकार अर्थ पुरुषार्थ और धर्म पुरुषार्थ के मोर्चे पर तो समाजवाद मार खा ही गया, काम पुरुषार्थ की सिद्धि में भी वह इसलिए सफल नहीं हो सका कि उसने व्यक्ति को राजतंत्र का एक निर्जीव पुर्जा बनाकर रख दिया । व्यक्ति की स्वंतत्र इच्छा का कोई महत्त्व नहीं रहा । न उसे कोई चुनाव करने की स्वतंत्रता रही। जैसे मदारी बंदर को जिस तरह नचाना चाहे उसे नाचना पड़ता है, राजतंत्र के हाथ में व्यक्ति की यही दशा हो गई। स्पष्ट है कि ऐसी स्थिति में काम पुरुषार्थ का भी कोई स्थान नहीं रह गया । विलासिता तो समाजवादी व्यवस्था में वैसे ही निषिद्ध थी । उपयोगितावाद की दृष्टि के कारण समाजवादी व्यवस्था में जीवन के उन तत्त्वों का स्थान नगण्य हो गया जो तत्त्व हमारी सूक्ष्म आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । उदाहरणतः दर्शन, काव्य, ललितकला आदि । इस प्रकार की विद्याओं को कल्पना की उड़ान न होने देकर समाजवाद और सत्ता की चापलूसी में नियोजित कर दिया गया । मनुष्य के अंदर की प्यास अतृप्त ही रह गई। कहने को श्रम को महत्त्व दिया गया लेकिन वस्तुतः श्रम का कोई अपना आन्तरिक मूल्य स्थापित नहीं हुआ अपितु श्रम को इसीलिए महत्त्वपूर्ण मान लिया गया कि उससे सम्पदा उत्पन्न होती है। श्रमिक को पैसा तो मिला, लेकिन सर्जन का आनंद नहीं मिला। इससे प्रतिभायें कुंठित हुई, श्रम के क्षेत्र में भी और सर्जन के क्षेत्र में भी । चिन्तन की परतंत्रता ने ज्ञान का विकास अवरुद्ध कर दिया। एक प्रकार से जैसे धर्म अन्तिम सत्य जान लेने का दावा करता रहा था, समाजवाद ने कुछ उसी तरह का दावा करना चालू कर दिया । व्यक्ति के सामने एक ही विकल्प रह गया कि या तो वह हां में हां मिलाये और नहीं तो मिट जाने के लिए तैयार रहे। समाजवाद में प्रजातांत्रिक प्रणाली एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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