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________________ ६७ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल के स्थान पर संगणक आ गये हैं और कृषि आज का मुख्य उद्योग नहीं रह गया। कल-कारखानों ने मुख्यतः उत्पादन उद्योग का स्थान ले लिया है, और ये तीनों मिलकर समाज का संचालन कर रहे हैं। उत्पादन, वितरण और रक्षा ये तीनों मिलकर ही राष्ट्र को सम्पन्न और स्थिर बनाते हैं। पूंजीवाद एक समय था कि समाज व्यवस्था का आधार भावना थी। आज समाज व्यवस्था का आधार धन हो गया है। भावना का संबंध चेतन से था और धन का संबंध जड़ पदार्थ से है। जब चेतन केन्द्र में था तो अर्थ साधन था किंतु जब अर्थ केन्द्र में आ गया तब चेतन साधन बन गया। जब अर्थ साध्य बना तो दो वादों का जन्म हुआ-पूंजीवाद और समाजवाद । इन दोनों वादों में मूल्य अर्थ को दिया गया । मतभेद केवल इतना रहा कि पूंजीवाद में व्यक्ति को यह स्वतंत्रता मिली कि वह धन को जितना चाहे इकट्ठा कर सकता है; संग्रह की कोई सीमा नहीं है। साथ ही उसे यह भी सुविधा मिली कि वह धन को जैसे चाहे वैसे खर्च करे। ऐसे विवाह देखने में आये हैं, जिन विवाहों के निमंत्रण पत्र शुद्ध चांदी की पतरी पर छपे हैं। बारात के एक भोजन में एक-एक व्यक्ति पर तीन-तीन हजार रुपये का व्यय और बारात में आने वाले हर व्यक्ति को उपहार में नई कार । यह सब पूंजीवादी व्यवस्था का चित्र है। इस व्यवस्था में यह माना जा रहा है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का निजी अधिकार है, वह उसे जैसे चाहे बरते । अट्टालिका के बराबर झुग्गी झोंपड़ी में रहने वालों के बच्चे दूध के लिए तरसा करें और औषधि के अभाव में मर जायें। अट्टालिका में रहने वालों का इससे कोई सरोकार नहीं। धन उसने अपने पुरुषार्थ से अर्जित किया है। इसमें वह किसी दूसरे को हिस्सेदार क्यों बनाये। जिनके पास पैसा नहीं है, उन्हें पूरी स्वतंत्रता है कि मेहनत करें और पैसा कमायें। उन्हें अमीर होने से किसी ने रोका नहीं है। इस व्यवस्था को बनाये रखने में धर्म ने यह कहकर सहयोग दिया कि अमीरी पुण्य का फल है और गरीबी पाप का फल है। जो गरीब हैं वे अपने पाप का फल भोग रहे हैं, हम इसके बीच हस्तक्षेप करने वाले कौन हैं। धर्म ने जले पर नमक छिड़कने का एक काम और किया। सादगी और अपरिग्रह के नाम पर दरिद्रता और मुफलिसी को महिमा मंडित कर दिया। कहा गया कि जो भोग-विलास में लिप्त हैं वे मरने के बाद नरक में जायेंगे और श्रमनिष्ठ तथा ईमानदार होने के बावजूद जो गरीबी में जी रहे हैं वे मरने के बाद स्वर्ग में जायेंगे। यह कहकर धर्म ने गरीबों को मरने से पहले ही नरक में धकेल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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