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________________ सामाजिक-आर्थिक तंत्र के चार मॉडल समाज के बिना व्यक्ति का विकास असंभव समाज के महत्त्व को अंकित करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने एक महत्त्वपूर्ण वाक्य लिखा-"समाज के संदर्भ से कटा हुआ व्यक्ति रामू भेड़िया तो बन सकता है, दार्शनिक और वैज्ञानिक नहीं बन सकता।" वस्तुतः रामू दार्शनिक और वैज्ञानिक नहीं बन सकता, बात इतनी ही नहीं है; वह दो टांगों पर खड़ा होकर चलना भी नहीं सीख सकता। भाषा का प्रयोग कर सकने की तो बात ही नहीं उठती। अर्थात् समाज के संदर्भ से कटा हुआ व्यक्ति शक्ल से भले मनुष्य लगे पर वस्तुतः पशु ही होता है। शक्ल उसे माता-पिता से गर्भ में ही प्राप्त होती है, लेकिन उत्पन्न होने के बाद ज्ञान वह अपने वातावरण से अर्जित करता है। उसे अनुकूल वातावरण न मिले तो केवल पिछले जन्म के कर्म भी उसके विकास में निमित्त नहीं बन पाते। हालांकि यह भी सत्य है कि कर्म-संस्कार के अभाव में अनुकूल परिस्थिति भी कार्यकारी नहीं होती। कर्म-संस्कार का कार्य अध्यात्म करता है। उसकी चर्चा हम साधना की चर्चा करते समय परमार्थ खण्ड में करेंगे। किंतु परिस्थिति का निर्माण सामाजिक संस्थायें करती है। इस प्रकार कर्म-संस्कार के लिए जहां अध्यात्म का अध्ययन आवश्यक है, वहां परिस्थिति निर्माण के लिए समाज विज्ञान और भौतिक विज्ञान को भी पढ़ना आवश्यक है। अध्यात्म और विज्ञान की युति का नाम ही जीवन विज्ञान है। अध्यात्म और विज्ञान की युति का एक और भी फल है। समाज शास्त्र जो कि एक विज्ञान है, हमें हमारे सामाजिक दायत्वि का बोध करा सकता है किंतु वह ऐसा रूपान्तरण नहीं कर पाता कि व्यक्ति अपने व्यवहार में भी उस कर्तव्य बोध को उतार सके । इस रूपान्तरण के लिए हमें अध्यात्म का सहारा लेना होगा । अध्यात्म का तो एकमात्र उद्देश्य व्यक्ति का रूपान्तरण ही रहा है, इसलिए अध्यात्म के क्षेत्र में रूपान्तरण की ऐसी अनेक प्रक्रियाओं का विकास हुआ है जो समय की कसौटी पर खरी उतरी है। यह मुख्यतः पूर्व की देन है। दूसरी ओर पश्चिम में सामाजिक चिन्तन का खूब विकास हुआ है। सुखद संयोग यह है कि जहां पश्चिम के विचारक अब यह समझने लगे हैं कि किसी भी विकास के लिए व्यक्ति के रूपान्तरण को केन्द्र में रखना होगा और इसलिए वे योग, ध्यान, अपरिग्रह और अहिंसा की ओर उन्मुख हो रहे हैं, वहां पूर्व के आचार्य महाप्रज्ञ जैसे अध्यात्म पुरुष समाज व्यवस्था के सूत्र देकर स्वस्थ समाज रचना का संकल्प अभिव्यक्त कर रहे हैं। इस प्रकार दो ध्रुव एक-दूसरे के निकट आना चाहते हैं। जीवन विज्ञान की कल्पना उसी निकटता को बनाने की दिशा में एक कदम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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