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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन कर्म भी करता है। प्रवृत्ति हमारी जीवन यात्रा का साधन है, साध्य नहीं है। ध्यान करने वाला व्यक्ति प्रवृत्ति को साधन मानता है। __ध्यान से स्नायविक तनाव, मानसिक तनाव और भावनात्मक तनाव कम होते हैं, स्वास्थ्य सुधरता है, रक्तचाप में अंतर आता है, किंतु यदि ध्यान का केवल यही उद्देश्य हो तो उसकी उपयोगिता सीमित हो जाएगी। किंतु हमने ध्यान का जो उपक्रम प्रारम्भ किया है, वह कुछ विशिष्ट उद्देश्य से किया गया है। उसमें शारीरिक स्वास्थ्य भी एक है। शारीरिक स्वास्थ्य भी कम मूल्यवान नहीं है, किंतु सबसे अधिक मूल्यवान् है अपने अस्तित्व का बोध । दुःखों को समाप्त करने का एक मात्र साधन है-अस्तित्व की उपलब्धि। अस्तित्व के बोध का अर्थ है स्वयं का अनुभव, चेतना के संवेदनों का अनुभव, निर्मलीकरण और ऊर्वीकरण । आज धार्मिक लोग आत्मा के प्रश्न को शास्त्रों के माध्यम से हल करना चाहते हैं, तर्क के द्वारा समाधान देना चाहते हैं, आत्मा को वाचिक प्रयत्नों के द्वारा, वाङ्मय द्वारा जानना चाहते हैं, यह विचित्र स्थिति है। एक ओर यह कहा जाता है कि आत्मा तर्कातीत, पदातीत और शब्दातीत सत्य है, दूसरी ओर हम उसे तर्क के द्वारा, पद के द्वारा, शब्द के द्वारा पाना चाहते हैं। यह कितना विरोधाभास है। आत्मा को हम स्वयं खोजें । जब तक हम स्वयं नहीं खोजेंगे, तब तक पता नहीं चलेगा। ध्यान का प्रयोग किया, अपनी अन्तश्चेतना को जगाया, साक्षात्कार किया और जाना कि आत्मा है. तब वह अपनी सच्चाई बन जाती है, अनुभव की सच्चाई बन जाती है। हमने हजारों प्रकार के भय पाल रखे हैं। भय इसलिए पल रहे हैं कि उनकी पृष्ठभूमि में ममत्व की भावना है। हम इतना घबरा रहे हैं कि जो प्रिय है वह छूट न जाए। विषयों के संरक्षण का ध्यान, पदार्थों को प्राप्त करने का ध्यान तथा उसकी सुरक्षा का ध्यान-यह ध्यान निरन्तर चल रहा है, दिन-रात चल रहा है। यह ध्यान सोते भी चलता है और जागते भी चलता है। प्रेक्षा-ध्यान केवल जागृत अवस्था में ही चलता है, सोते नहीं चलता। आर्त और रौद्र ध्यान निरन्तर चलने वाले ध्यान हैं। आप इस प्रकार के ध्यान के अभ्यस्त हैं। शरीर-प्रेक्षा द्वारा अनुराग की दिशा जो व्यक्ति के साथ, पदार्थ के साथ जुड़ रही है उसको बदलकर अपने अस्तित्व के साथ जोड़ देना है। हमारा सारा आकर्षण, हमारी सारी श्रद्धा पदार्थ के प्रति है, दूसरे के प्रति है, अपने प्रति नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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