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________________ ४० महाप्रज्ञ-दर्शन पाप वहां है जहां प्रमाद है। जहां प्रमाद नहीं है वहां भय की आवश्यकता नहीं है - अप्पमत्तस्स णत्थि भयं । अखण्ड है काल और कालातीत है समता साक्षीचेता आत्मा की महिमा विचित्र है। ज्ञान उसका स्वभाव है । उसके ज्ञान की कोई सीमा नहीं है। उसके जानने में काल बाधक नहीं है। हम भूत और भविष्य को इसलिए नहीं जान पाते हैं कि वे हमारे सामने नहीं हैं। हमारे सामने केवल वर्तमान है किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि वर्तमान में भूत और भविष्य का अस्तित्व ही नहीं है। एक श्रृंखला की कड़ी जो अभिव्यक्त है, वह वर्तमान है। जो कड़ी कभी व्यक्त थी किंतु वर्तमान में अव्यक्त हो गई, वह अतीत है और जो वर्तमान में अव्यक्त है, किंतु भविष्य में व्यक्त हो जायेगी, वह भविष्य है। हमें केवल वर्तमान दिखता है क्योंकि वह व्यक्त है । यदि हमें अव्यक्त को भी जानने की शक्ति प्राप्त हो जाये तो कोई कारण नहीं कि भूत और भविष्य भी न दिखने लगे। ऐसी स्थिति में काल का भूत, भविष्य, वर्तमान के रूप में विभाजन नहीं हो पाता। तब काल एक अखण्ड धारा के रूप में दिखता है जिसमें न भूत है, न भविष्य, न वर्तमान । उस समय काल का अर्थ बदल जाता है। हमारी अल्पज्ञता के कारण हमें भूत, भविष्य और वर्तमान के रूप में काल खण्डित नजर आता है- यह व्यावहारिक काल है। जब काल अखण्ड हो जाता है तो काल का विभाजन नहीं हो पाता - वह पारमार्थिक काल है। हमारा शुद्ध साक्षिरूप कालातीत है - वहां व्यावहारिक काल नहीं है । व्यावहारिक काल की दृष्टि से कोई परिवर्तन सुखप्रद है, कोई दुःखप्रद है। लाभ सुखप्रद है, हानि दुःखप्रद । जब हमें लाभ दृष्टिगोचर होता है तब हानि नहीं दिखती; जब हानि दिखती है तब लाभ नहीं दिखता। अतः हम कभी सुखी होते हैं, कभी दुःखी । यदि हमें लाभ हानि एक साथ दिखने लगे तो सुख दुःख एक दूसरे को काट देंगे - न्यूट्रेलाईज कर देंगे। उस स्थिति में न हमें सुख होगा न दुःख । यही समता है, यही धर्म का प्रारम्भ बिंदु है और यही धर्म का चरम बिंदु है - समया धम्ममुदाहरे मुणी । समता की स्थिति में हमें परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है किंतु उस परिवर्तन के साथ अनुकूलता या प्रतिकूलता का भाव नहीं जुड़ता । तब द्रष्टा दृश्य से विचलित नहीं होता । हम अल्पज्ञ हैं अतः हमें हानि लाभ एक साथ नहीं दिख सकते किंतु अपने अनुभव से हम यह जान तो सकते ही हैं कि न हानि हमेशा रहने वाली है न लाभ। यहां सब कुछ अनित्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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