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________________ भावभूमि प्रकार करे यह चेतना की स्थिति पर निर्भर करता है। चेतना की मुख्यतः तीन स्थितियां हैं-एक विधायक स्थिति जिसे शुभोपयोग कहा जाता है, एक निषेधात्मक स्थिति जिर्स अशुभोपयोग कहा जाता है तथा तीसरी स्थिति वह है जिसमें चेतना परमुखापेक्षी न होकर स्व में स्थित रहती है। इस तीसरी स्थिति को शुद्धोपयोग कहा जाता है। हम प्रसन्नता की मुद्रा में, शान्त मन से सबके प्रति मैत्री भाव रखते हुए कार्य कर रहे हैं यह चेतना का शुभोपयोग है। हम दुःखी होकर अशान्त एवं विक्षिप्त मन से सबके प्रति असंतोष के भाव को रखते हुए कार्य कर रहे हैं, यह चेतना का अशुभोपयोग हुआ। हम सुख दुःख से ऊपर उठकर केवल दृष्टाभाव में स्थित हैं, यह चेतना का शुद्धोपयोग है। बाह्य संसार एक : अन्दर के संसार सबके अलग-अलग हमारे चारों ओर निरन्तर घटनाएं घटित होती रहती हैं। वे घटनाएं हमारे बाहर घटित होती हैं। हम इन घटनाओं को जानते हैं। यहाँ तक हम घटनाओं के द्रष्टा होते हैं। जहाँ तक हम घटनाओं के द्रष्टा होते हैं, हम घटनाओं से प्रभावित नहीं होते किंतु प्रायः हम घटनाओं के द्रष्टा बहुत समय तक नहीं रह पाते। हम उन घटनाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भी करते हैं। यह प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण है। घटना हमारे आधीन नहीं है, घटना को जानना अथवा न जानना भी हमारे आधीन नहीं है। घटना घटेगी तो हम उसे जानेंगे भी। घटना का यह जानना सबका समान होता है किंतु उस घटना के प्रति सबकी प्रतिक्रिया समान नहीं होती, बल्कि कभी-कभी तो दो व्यक्तियों की यह प्रतिक्रिया एक दूसरे के सर्वथा विरुद्ध भी होती है। प्रतिक्रिया की इस विविधता का कारण हमारे मन के पूर्व संचित संस्कार हैं। हम सबके संस्कार एक जैसे नहीं हैं, अतः हम सबकी प्रतिक्रिया एक जैसी नहीं हो सकती। वस्तुतः एक संसार हमारे बाहर है, वह सबके लिए एक जैसा है कितु एक संसार हमारे अंदर है, वह सबका भिन्न-भिन्न है तथा उसके कारण हम सब बाहर के संसार को एक जैसा नहीं देख पाते हैं; हमारे बाहर का संसार जब अन्दर के संसार पर प्रतिबिम्बित होता है तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो जाता है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्दर एक अलग तरह का संसार लिये फिरता है जिसका निर्माण वह स्वयं करता है। यदि हम विधायक दृष्टिकोण लेकर चलते हैं तो हम बाहर के संसार को अपने अनुकूल ढालकर उसकी व्याख्या करते हैं। ऐसे में हमें सब अपने अनुकूल लगते हैं, अतः सहज ही हमारा सबके प्रति मैत्री भाव प्रस्फुटित हो उठता है। निषेधात्मक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति को सब कुछ प्रतिकूल प्रतिभासित होता है। अतः वह किसी के प्रति मैत्री नहीं रख सकता। यह एक स्थिति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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