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________________ २६ महाप्रज्ञ-दर्शन लक्ष्य तो तत्त्वार्थ ही है-तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तत्त्व का अर्थ है कि जो जैसा है उस पदार्थ को वैसा ही जानना/मानना। सारी साधना सत्य की खोज है। हमारे अज्ञान और अन्धविश्वासों का अन्त नहीं है। धर्म अन्धविश्वास का मित्र नहीं है, अपितु अंधविश्वासों का शत्रु है। ऐसे कुछ अन्धविश्वासों की चर्चा करना अप्रासङ्गिक न होगा। अहिंसा की सूक्ष्मता ____एक अन्धविश्वास हमारे मन में रूढ़ है कि अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी सब जड़ हैं। इनके साथ हम जैसा चाहे वैसा व्यवहार कर सकते हैं। विज्ञान ने एक बात सिद्ध कर दी है कि जिन पदार्थों को हम जड़ कह रहे हैं उनका भी अपना आभामण्डल है। इन जड़ पदार्थों का आभामण्डल भी हमें प्रभावित करता है। कल्पना करें कि हमारे मन में पृथ्वी के लिए यह भाव आया कि हम यहां से जमीन खोद डालें। हमने न तो अभी जमीन को खोदना शुरू किया है, न ही हमारे हाथ में इसके लिए फावड़ा आदि कोई औजार है। हमारे मन में सिर्फ पृथ्वी पर गड्ढा खोदने का विचार आया है। इस विचार के साथ ही हमारे आभामण्डल में परिवर्तन आ जाता है। यह परिवर्तन हमारे मन के हिंसा भाव को प्रकट करता है। किंतु इससे भी बड़े आश्चर्य की बात यह घटित होता है कि पृथ्वी के ओरा में भी परिवर्तन आ जाता है। जमीन के समस्त स्पन्दन बदल जाते हैं। जमीन के स्पन्दनों में दुःखपूर्ण तरंगें बन जाती हैं। पृथ्वी में होने वाले इस स्पन्दन से मैं अप्रभावित नहीं रह सकता। मेरे मन का हिंसा भाव मेरे आभामण्डल को कलुषित करता है। यह कलुष अन्ततोगत्वा स्वयं मेरे दुःख का कारण बन जाता है। यह मानसिक हिंसा का फल है। आप जल को प्रताड़ित करें। जल के सहज स्पंदन बदल जायेंगे। वे स्पन्दन हमारे स्पन्दन को भी विकृत कर डालेंगे। हमारे विकृत स्पन्दन न हमारे मन को स्वस्थ रहने देंगे, न तन को। यह शारीरिक हिंसा का फल हुआ। यही स्थिति अग्नि और वायु की भी है। पशु-पक्षियों को तो जब हम पीड़ित करते हैं तो उनके चीत्कार के कारण हम उनकी वेदना का अनुमान कर लेते हैं। ये त्रस जीव हैं। किंतु हम वनस्पति पर प्रहार करते हैं तो वनस्पति की कोई ऐसी प्रतिक्रिया हमें प्रतीति में नहीं आती कि हम यह अनुमान कर सकें कि उन्हें भी पीड़ा हो रही है। अब सर जगदीशचन्द्र बोस ने वैज्ञानिक उपकरणों के माध्यम से वनस्पतियों की वेदना को भी प्रत्यक्ष करके दिखा दिया है। अहिंसा की प्रासंगिकता हमने अग्नि, जल, वायु और पृथ्वी की चर्चा ऊपर की है। विज्ञान अभी इनमें जीवन भले सिद्ध न कर पाया हो किंतु यह तो सिद्ध हो ही गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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