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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन सत्य का आवरण है कषाय कषाय एक रंग है। हमारी आत्मा का कोई रंग नहीं है। आत्मा अर्थात् स्वभाव पर जो भी रंग चढ़ा है वह बाहर से आया है-आगन्तुक है। उस आगन्तुक रंग ने आत्मा को कषायित किया है-रंग दिया है। उस रंग के कारण ही न हम सत्य को जान पाते हैं, न मान पाते हैं। जाने और माने बिना सत्य को आचरण में उतारने का तो प्रश्न ही कहां है। कषाय-वश हमें जो है वह तो दिखायी देता नहीं, दिखायी कुछ और ही देता है। जो है उसे छिपा ले-वह आवरण है, जो नहीं है उसे दिखा दे वह विक्षेप है। आवरण और विक्षेप का ही नाम वेदान्त में माया है और जैन परम्परा में मिथ्यात्व है। मान्यता को उलट दे वह दर्शनमोहनीय, ज्ञान को छिपा ले वह ज्ञानावरणीय, चरित्र को विपर्यस्त कर दे सो चरित्र-मोहनीय। ये तो विद्वानों के दिये हुए नाम हैं। नाम कभी-कभी बहुत डरा देते हैं। शब्द कभी-कभी सत्य को प्रकट नहीं करते बल्कि सत्य को छिपा लेते हैं। सिद्ध पुरुषों ने तो कह दिया कि आत्मा को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता पर आत्मा के स्वरूप को बतलाने के लिए दार्शनिकों ने ऐसा शब्द-जाल फैलाया कि आत्मा शब्द तो सबकी जबान पर चढ़ गया पर जैसे ही हम यह जानना चाहें कि आत्मा है क्या; वैसे ही विभिन्न दार्शनिकों के बीच ऐसा दंगल मचता है कि उसके आगे ओलम्पिक की प्रतियोगिताएं भी फीकी पड़ जाती हैं। आत्मा को जानना हो तो शब्दों से नहीं जाना जा सकेगा। उसके लिए साधना से गुजरना पड़ेगा। तब ही हम कबीर की वाणी में अपनी वाणी मिला कर कह सकेंगे तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखन की देखी। आत्मज्ञान कोई भूलभुलैया नहीं है अपने को जानना होगा। अगर जानने वाले को ही न जाना तो दूसरों के जानने की इच्छा करने का अर्थ एक बुझे हुए दीपक से घट-पट आदि पदार्थों के प्रकाशित हो जाने की आशा करना होगा। दीपक अपने को प्रकाशित कर दे तो फिर सबको प्रकाशित कर सकता है, वह स्व-प्रकाशक होकर ही पर-प्रकाशक हो सकता है। हम अपने को जानते नहीं और दूसरों को जानते हैं तो हमारा दूसरों को जानना भी मिथ्या ही है। अपने को नहीं जाना-यह दृष्टि का मिथ्या होना हुआ। जो मिथ्यादृष्टि है उसका सब ज्ञान मिथ्या है। कहा जाता है कि यह आत्मज्ञान का चक्कर भारतीय दर्शन को रहस्यवादी बना देता है-बुद्धि से परे की चीज बना देता है। न नौ मन तेल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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