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________________ १५ भावभूमि पर इसे मानने को तैयार नहीं हैं । यह मिथ्या दृष्टि हुई । कभी-कभी हमें यह पता ही नहीं होता कि सच्चाई क्या है । उदाहरणतः हमें यह पता ही नहीं है कि हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका (सेल) में प्रति सेकेन्ड ६ ट्रिलयन (६०००,०००,०००,०००) प्रतिक्रियाएं हो रही हैं। हम यही समझते हैं कि हमारा शरीर कुछ स्थिर न बदलने वाले - घटकों की समष्टि है । यह अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान हुआ। सच्चाई यह है कि एक मास में हमारे शरीर की पूरी चमड़ी बदल जाती है । पाँच दिन में उदर की चारदीवारी बदल जाती है, छह सप्ताह में लीवर बदल जाता है तथा तीन महीनों में पूरा अस्थिपञ्जर बदल जाता है। एक वर्ष पूरा होते न होते हमारे शरीर का ६८ प्रतिशत भाग पूरी तरह बदल चुका होता है, पर हम जन्मदिन के अवसर पर यही समझते हैं कि हमारा शरीर २ प्रतिशत भले ही बदल गया हो ६८ प्रतिशत तो वही है जो पिछले जन्मदिन पर था अर्थात् जो है, हम ठीक उसका उल्टा मानते हैं। जब ज्ञान ही मिथ्या है तो दृष्टि सम्यग् होगी ही कैसे ? तीन रत्न हम जानते भी हैं और मानते भी हैं कि भूख से ज्यादा खा लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है फिर भी अपने मन पसंद का भोजन सामने हो और परोसने वाला मनुहार कर रहा हो तो ज्यादा खा ही लेते हैं और फिर रात भर खट्टी-मीठी डकारें लेते हुए अनिद्रा से पीड़ित होकर करवटें बदला करते हैं - यह आचरण की विपरीतता है। ज्ञान भी सम्यक्, मान्यता भी सम्यक् पर आचरण मिथ्या । जिसे हम ठीक से जानते हैं उसे मानें भी । यह सम्यक् दर्शन हुआ । जिसे हम ठीक नहीं जानते उसे ठीक से जानने का पुरुषार्थ करें - यह सम्यग् ज्ञान की आराधना हुई, और जब किसी चीज को ठीक जान-मान लिया तो फिर आचरण उस सम्यक् ज्ञान और सम्यक् श्रद्धा के अनुरूप हो, यह सम्यक् चरित्र हुआ। यह नहीं हो कि दुर्योधन की तरह अपनी विवशता प्रकट करते हुए कह दें कि हम जानते हैं कि ठीक क्या है फिर भी उसे कर नहीं सकते और हम जानते हैं कि गलत क्या है फिर भी उसे कर ही डालते हैं जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्य् अधर्मं न च मे निवृत्तिः दुर्योधन ने अपने मिथ्या आचरण का सारा बोझ किसी देव पर डाल दिया था कि "मेरे हृदय में एक देव बैठा है, वह जैसा करवाता है मैं वैसा कर देता हूं" - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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