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________________ ३०४ महाप्रज्ञ-दर्शन ० आसनैः क्षुत्पिपासाजयः ० सहिष्णुता च आसन के द्वारा भूख और प्यास पर भी विजय पाई जा सकती है। आसन के द्वारा मानसिक और भावात्मक द्वन्द्वों पर भी विजय पाई जा सकती है। ० रूपान्तरणे सति न नियन्त्रणापेक्षा बहुत बार ऐसा होता है कि व्यक्ति नियंत्रण करना चाहता है, शोधन करना चाहता है, संकल्प करना चाहता है, अच्छा होना चाहता है, फिर भी वह वैसा हो नहीं पाता। त्याग करता है, प्रत्याख्यान करता है, दृढ़ निश्चय करता है, परन्तु जो अन्तर् में बदलना चाहिए वह नहीं बदलता, जो आदत बननी चाहिए वह नहीं बनती। तब व्यक्ति के मन में प्रश्न उभरता है। इसका अच्छा समाधान लेश्या तंत्र के द्वारा मिलता है। यदि हम स्नायविक स्तर पर भी इस प्रश्न को समाहित करना चाहें तो हो नहीं सकता। जब तक शोधन नहीं होता तब तक नियंत्रण की बात सामने आती रहेगी, रूपान्तरण नहीं होगा। रूपान्तरण के बाद नियंत्रण समाप्त हो जाता है, क्योंकि रूपान्तरित व्यक्ति के लिए नियंत्रण की जरूरत नहीं होती। ० हेयं मलं शरीरावरोधक ० चैतन्यकेन्द्रावरोधकञ्च साधक शरीरावरोधक मल को ही साफ नहीं करता, चेतना के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले मलों को भी साफ करता है। ० आत्मनि सति चेतना ० तस्यां प्राणाः ० तेषु श्वासः श्वास का दर्शन आत्मा का दर्शन है। श्वास वही लेता है जिसमें प्राण होते हैं। प्राण उसमें होते हैं जिसमें चेतना होती है। चेतना उसमें होती है जिसके आत्मा है। आत्मा के निकल जाने पर श्वास भी समाप्त । ० श्वासनिश्वासयोर्मध्येऽश्वासः ० सो ध्यातव्यः श्वास और निःश्वास-इन दोनों के बीच जो अश्वास का क्षण है, उसे पकड़ना है। ० लघुकायः प्रज्ञावान् जो प्रज्ञावान् होगा, उसका मांस-शोणित प्रतनु होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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