SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः २६५ हैं। ईर्ष्या, कदाग्रह, अज्ञान, माया, निर्लज्जता, विषय वासना, क्लेश, रस लोलुपता-ये नील लेश्या के परिणमन हैं। वक्रता-वक्र आचरण, अपने दोषों को ढांकने की मनोवृत्ति, परिग्रह का भाव, मिथ्यादृष्टिकोण, दूसरे के मर्म को भेदने की वृत्ति, अप्रिय कथन-ये कापोत लेश्या के परिणमन हैं। ० बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा चेति विकासक्रमः ० अधोलोकान्मध्यलोके ऊर्ध्वलोके च क्रमिकारोहणम् हमारी चेतना के तीन स्तर हैं-मूर्छा, जागृति और वीतरागता । मिथ्यात्व या मिथ्यादृष्टि मूर्छा की अवस्था है। मूर्छा में बहिर्मुखता रहती है। जागृति का फलित है-अन्तर्मुखता। अर्थात् मन, इन्द्रिय, प्राण की चंचलता का विलीन हो जाना । सम्यक दर्शन का पहला क्षण जागरण का पहला क्षण है। वीतरागता की चेतना में हमारी साधना पूर्ण होती है। जागृति की प्रक्रिया क्या हो ? हमारे शरीर के मुख्यतः तीन भाग ऊर्ध्व, अधो और मध्य । नाभि से ऊपर ऊर्ध्व, नाभि मध्य और नाभि के नीचे का भाग अधोलोक। हमारी प्राणशक्ति अधोलोक से शुरू होती है-उसका प्रवाह ऊपर जाने पर चेतना का विकास नाभि से १२ अंगुल ऊपर एक चक्र हैं, उसका नाम है मन चक्र। उस मन चक्र पर जब हमारी प्राणशक्ति का प्रवाह जाता है तब जागरण का पहला क्षण होता है। अपनी धारणा के द्वारा प्राणशक्ति को मनःचक्र में केन्द्रित करना और वहाँ केन्द्रित कर प्राणायाम् करना-रेचक पूरक और कुंभक करना। यह है जागृति की प्रक्रिया। ऐसा करने पर मन की ग्रन्थि खुलने लगती है। यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थूल शरीर से भी बड़ी एक शक्ति है सूक्ष्म शक्ति और इस सूक्ष्म शरीर से भी अलग चैतन्य की स्वंतत्र सत्ता है तथा उसका विकास किया जा सकता है । जागरण होने से आत्मा और शरीर का भेदज्ञान, हमारी शक्तियों का बोध, अस्तित्व का बोध तथा अन्तर्जगत की क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं का बोध हो जाता है। ० मूर्छा नियन्त्रिता हितकरी लोके परस्परोपकाराधारत्वात् ० मूर्छाऽनियन्त्रिता विनाशकरी सामाजिक प्राणी के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि मूर्छा सर्वथा हेय है। वह छोड़ भी नहीं सकता। जो कुछ दूसरे के लिए होता है या किया जाता है वह सारा मूर्छा और मोह के कारण ही हो रहा है। मोह नहीं होता तो कौन पढ़ाता बच्चों को ? कौन उन्हें तैयार करता ? कौन उन्हें व्यवसाय सिखाता ? फिर तो सब अकेले होते। सब विरागी या विरक्त होते । अकेला आदमी विरागी बनकर जीवन यापन कर सकता है, पर समाज वैसा नहीं कर सकता। यदि संसार ऐसा होता तो वह फिर संसार नहीं, व्यक्ति होगा। आदमी अनगिनत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy