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________________ रूपान्तरणप्रक्रियाधिकरणे मनःपादः २८६ का महत्त्वपूर्ण सूत्र है। केवल वर्तमान पर विचार करना आवश्यक है,पर पर्याप्त नहीं। केवल अतीत और भविष्य पर विचार करना ही पर्याप्त नहीं है। तीनों कालों का समाहार करने से ही साधना की संगति होती है और भाव-चिकित्सा के क्षेत्र में नयी उपलब्धि होती है। अतीत का प्रतिक्रमण अत्यन्त आवश्यक है। जब तक अतीत के प्रतिक्रमण और मनोभावों को समझने की बात फलित नहीं होती तब तक मानसिक ग्रन्थियां नहीं खुल सकती। ग्रन्थियों के विमोचन के बिना हम वर्तमान का जो उपयोग करना चाहते हैं, सफल बनाना चाहते हैं, पर वर्तमान बंटा हुआ नहीं है। वह जुड़ा हुआ है, अतीत और भविष्य से। ० व्यग्रं ज्ञानम्, एकाग्रं ध्यानम् ज्ञान और ध्यान दो नहीं है। वस्तुतः ज्ञान ही ध्यान है। जो तरल है, व्यग्र है, वह है ज्ञान और जो ज्ञान एकाग्र है, जमा हुआ है, वह ध्यान है। ० ० ज्ञानस्य तटस्थता-यथार्थता-स्थिरता: ध्यानम् __ज्ञान को ध्यान में बदलने के तीन साधन हैं-ज्ञान तटस्थ हो, यथार्थ हो, अतिनिश्चल हो। ० आयासराहित्य - आकाशदर्शन - कुम्भक - हृदयचक्रध्यान - आत्मानुभवाः निरालम्बध्यानसाधकाः निरालम्बन ध्यान की पद्धतियां-- ० प्रयत्न की शिथिलता ० निरभ्र आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखते जाएं ० केवल कुम्भक का अभ्यास करें ० मानसिक विचारों को समेटकर हृदय-चक्र की ओर ले जायें ० आत्मा या चैतन्य केन्द्र की धारणा को दृढ़ कर उसके सान्निध्य का अनुभव करें। ० श्रुतज्ञाने मनः स्थिरता ___मन को एक स्थान पर टिकाने का साधन है-श्रुतज्ञान। ० ० ० ० ० ध्यानेन नाशुभविचारः ० न विकल्पजालविस्तरो वा बुरे विचारों या विकल्पों से छुट्टी पाने का एकमात्र मार्ग है-ध्यान । जो व्यक्ति एकाग्रता का अभ्यास करता है उसमें इतना अन्तर अवश्य आ जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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