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________________ २७४ महाप्रज्ञ-दर्शन ० अध्यवसाय आन्तरः ० तस्य बाह्येन सम्बंधसेतुर्लेश्या जो आन्तरिक व्यक्तित्व का संचालक है, उसे अध्यवसाय कहा जाता है। आन्तरिक व्यक्तित्व और बाह्य व्यक्तित्व-इन दोनों के बीच एक सेतु है, दोनों को जोड़ने वाला है, वह है लेश्याचित्त या भाव चित्त । ० अध्यवसायो भावतन्त्रं रञ्जयति ० ततो लेश्या अध्यवसाय की एक धारा जो रंग के परमाणुओं से प्रभावित होती है, रंग के परमाणुओं के साथ जुड़कर भावों का निर्माण करती है, वह है-हमारा लेश्या तंत्र या भाव तंत्र। ० कर्मनिर्झरः लेश्या लेश्या की एक परिभाषा है-कर्म निर्झर । लेश्या कर्म का झरना है, कर्म का प्रवाह है। ० लेश्या तैजसशरीरगामिनी लेश्या का स्तर-विद्युत् शरीर-तैजस शरीर के साथ काम करता है। ० मेरुदण्डे शक्त्यभिव्यक्तिः ० हृदये आनन्दाभिव्यक्तिः ० मस्तिष्के ज्ञानाभिव्यक्तिः ० शरीरे सर्वाभिव्यक्तिः शक्ति के प्रकट होने का केन्द्र है-पृष्ठरज्जु । आनन्द प्रकट होने का केन्द्र है-अनाहत चक्र, मन चक्र, हृदय चक्र । चेतना के अभिव्यक्त होने का केन्द्र है-बृहद् मस्तिष्क । शरीर के माध्यम के बिना शांति, ज्ञान, आनंद कुछ भी प्रकट नहीं हो सकता। ० चित्तं मलिनीकरोतीति कर्म ० चित्तं विमलीकरोतीत्यकर्म मुमुक्षामात्रप्रेरितं वा कर्म जिस क्रिया से चित्त कलुषित हो, वह कर्म है। जिस क्रिया से चित्त निर्मल हो, वह अकर्म है। अकर्म वह है जिसके पीछे केवल मुक्ति की प्रेरणा हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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