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________________ २६८ . ० ० महाप्रज्ञ-दर्शन ० अहिंसा-सत्यापरिग्रहात्मकञ्च चरित्रं सफलतामार्गः। तच्चाभयप्रदम् सफलता का सबसे बड़ा सूत्र है-चरित्र का विकास और चरित्र के विकास के लिए ये तीन बड़े स्तम्भ हैं-अहिंसा, सत्य और अपरिग्रह । - अभय की मुद्रा का विकास करना चाहें तो अहिंसा का विकास करें। अहिंसा अभय की एक मुद्रा है। असंग्रह का विकास करें असंग्रह अभय की एक मुद्रा है। जिसके अंतःकरण में ये भावनाएं जन्म लेती हैं, सचमुच वह अभय बन जाता है। ० अभेदप्रतीतौ मैत्रीसमताहिंसाः जहाँ अभेद की प्रतीति होती है वहाँ मैत्री, समता और अहिंसा का पूर्ण विकास होता है। ० निषेधदृष्टिहानौ विध्यात्मकदृष्ट्युदये च दर्शन-समाधिः । __ भावात्मक दृष्टि का उदय और अभावात्मक दृष्टि को समाप्त करना है-दर्शन समाधि। ० विसर्जननिग्रहौ चारित्रम् ० अनाशंसा-अभय-समता-संयम-सम्यक्चर्या-ध्यान-अप्रमादास्तदङ्गानि __ खाली करना और निग्रह करना चरित्र है। चरित्र के सात अंग है-अनाशंसा, अभय, समता, संयम, सम्यक् चर्या, ध्यान और अप्रमाद। ० लोभात्प्रवर्तन्ते क्रियाः ० कामाद्वा मनोविज्ञान के अनुसार प्राणी के जीवन केन्द्र में या तो लोभ है या काम है। कर्मशास्त्रीय दृष्टि से भी जीवन केन्द्र में लाभ ही है। ० भावनियन्त्रणे क्रिया-मनसोनियन्त्रणम् भाव के कारण यह मन विक्षेप उत्पन्न कर रहा है, उड़ रहा है, मन का घोड़ा दौड़ रहा है। मन के प्रति जागने से मन स्थिर नहीं होगा। हाथ के प्रति जागने से हाथ स्थिर नहीं होगा। हाथ में जो शक्ति प्रकंपन पैदा कर रही है, मन को जो शक्ति चला रही है, वह है सारी भाव की शक्ति । ० प्रशस्ताप्रशस्तौ कृष्ण-श्वेतादयो वर्णाः वर्ण अच्छे या बुरे दो प्रकार के होते हैं। काला रंग अच्छा भी होता है, बुरा भी होता है। प्रशस्त भी होता है, अप्रशस्त भी होता है। मनोज्ञ भी होता है, अमनोज्ञ भी होता है। श्वेत वर्ण भी अच्छा, बुरा, प्रशस्त, मनोज्ञ, अमनोज्ञ भी होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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