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________________ परिभाषाधिकरणे समस्यापादः २४५ ० मू.कैव बहुरूपिणी प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त है कि बीमारी एक ही है। शरीर में विजातीय तत्त्व संचित हो जाता है और वह बीमारी का रूप धारण कर लेता है। इसी प्रकार मूर्छा एक ही है। कारण-भेद के अनुसार वह अनेक प्रकार की हो जाती है। आहार के प्रति आसक्ति होती है, वह आहार संज्ञा कहलाती है। परिग्रह के प्रति आसक्ति होती है, वह परिग्रह संज्ञा कहलाती है। वास्तव में मूर्छा एक ही है। ० द्वन्द्वं संसारः ० तच्च सुखदुःखे, जीवनमरणे, निन्दाप्रशंसे, मानापमाने, हानिलाभौ चेति पञ्चविधम् द्वन्द्वों का जीवन संसार का जीवन है। हमारे जीवन में बहुत सारे द्वंद्व हैं, सुख और दुख एक द्वंद्व है, जीवन और मरण एक द्वन्द्व है, निन्दा और प्रशंसा एक द्वंद्व है, मान और अपमान का एक द्वंद्व है, लाभ और हानि एक द्वंद्व है-ये पांच प्रकार के द्वंद्व हैं। द्वंद्व मुक्त जीवन है अध्यात्म का जीवन । ० विषमता वा संसारः ० समताध्यात्मम् जहां चित्त की विषमता है-वह है व्यवहार का संसार और जहाँ चित्त की विषमता नहीं है, समता है, वह है अध्यात्म का संसार, वास्तविक संसार । ० जीवनं प्रकम्पनबहुलम् ० तत्तु बाह्यमाभ्यन्तरञ्च ० वस्तुना तत्संयोगः सुखं दुःखञ्च, न तु वस्तुमात्रम् ___हमारा सारा जीवन प्रकंपनों का जीवन है। बाह्य जगत् में प्रकंपन है वाइब्रेशन्स है और भीतरी जगत् में भी प्रकंपन है। प्रकंपन ही सुख दुःख पैदा करते हैं। केवल वस्तु से सुख या दुःख नहीं होता। वस्तु और प्रकंपन-इन दोनों का योग होता है तब सुख या दुःख होता है। ० चिन्तातुरस्य न सुखं न दुःखम् आदमी अनमना है, चिंतातुर है या कोई बाहरी रोग से ग्रस्त है या आपत्ति में है, उस समय भी वह खाता है, किंतु स्वाद का अनुभव नहीं करता। अनमने व्यक्ति को न सुख का अनुभव होगा और न दुःख का। प्रकंपन पैदा हुआ और हमारा ध्यान उस प्रकंपन से जुड़ जाता है, तब सुख या दुःख का अनुभव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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