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________________ २३४ महाप्रज्ञ-दर्शन यह कथा दूसरी है कि आचार्य महाप्रज्ञ स्वयं कल्पवृक्ष होकर भी हवा के रथ पर बैठकर घूम रहे हैं और सब तक पहुंच रहे हैं, अपने कर्म की निःस्पृहता से, अपने वचन की प्रखरता से और अपने मन की ऋजुता से। इस अलौकिकता के मूल में है आचार्य जी का तप । उन्हें आज के आदमी से एक शिकायत है आज का आदमी ताप से इतना घबराता है कि उसके मकान की सारी खिड़कियाँ और सारे दरवाजे बंद हैं वह कोरा प्रकाश चाहता है ताप बिल्कुल नहीं। ताप से इतने अधिक भयभीत मनुष्य की नियति पशु से भिन्न कहाँ हो सकती है जो गवाँकर मान अपना ध्यान रोटी में रमाते और "जी हाँ" की लगन में मौज मनमानी उडाते मनुज के आकार में वे जिन्दगी पशु की बिताते शूल पर चल भूल मत तू फूल ये तुझको गिराते कष्ट ही है सार जग जो चेतना की लौ जलाते मनुष्य की दुर्दशा का कारण है कि समस्यायें उसने खुद पैदा की हैं और उनका हल वह कहीं बाहर ढूंढ रहा है। महावीर ने तो घोषणा कर दी थी कि हे पुरुष ! तू अपना मित्र अपने आप में है, बाहर मित्र क्यों ढूंढता है-पुरिसा तुममेव तमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि। आचार्य महाप्रज्ञ ने इसी वाणी का अनुवाद कर दिया बीज तुम्ही हो और तुम्ही फल तुम ही नौका तुम ही नाविक और तुम्ही हो अतुल अतल जल। तुम्ही चरण हो पथ हो तुम ही, उलझन तुम ही और तुम्ही हल ॥ ज्ञान का सार है कि किसी को पीड़ा न दी जाये-"जं ण हिंसई किंचन" धर्म का सार भी तो यही हैश्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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