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________________ दृष्टि ३६. कष्टों से व्यक्ति निर्बल होता है। ३६. कष्टों से व्यक्ति निखरता है। ३७. शरीर के समाप्त होने पर हम ३७. शरीर के समाप्त होने पर भी हमारा समाप्त हो जायेंगे। अस्तित्व बना रहेगा। ३८. मुक्ति के लिए कर्म छोड़ना ३८.मुक्ति के लिए कर्म छोड़ना आवश्यक है। आवश्यक नहीं है। आवश्यक है-कर्म के प्रति जागरूकता। ३६. काल सीधी रेखा के रूप में चलता ३६. काल वर्तुलाकार चलता है। ४०.काल के प्रभाव से हम बूढ़े होते हैं और मरते हैं। ४०.जरा और मृत्यु शरीर का धर्म है, आत्मा का नहीं। समाज १. व्यक्ति परिस्थिति का निर्माण करता १. व्यक्ति और परिस्थिति एक दूसरे है अथवा परिस्थिति व्यक्ति का का निर्माण करते हैं। निर्माण करती है। २. परिस्थिति ठीक हो तो व्यक्ति अपने २. व्यक्ति के लिए साधना में से आप सुधर जाएगा अथवा व्यक्ति गुजरना और संस्थाओं के लिए ठीक हो तो संस्थाएं अपने आप ठीक व्यवस्था का निर्माण-दोनों सुधर जायेगी। आवश्यक हैं। ३. एक आदर्श समाज की व्यवस्था ३. समाज व्यवस्था कितनी भी आदर्श होनी चाहिए। हो, उसमें देश व काल के अनुसार परिवर्तन अपेक्षित रहता है। ४. जैन परम्परा में सामाजिक व ४. प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने राजपद आर्थिक तन्त्र का चिन्तन नहीं है। पर रहते समय असि, मसि और कृषि की व्यवस्था द्वारा सामाजिक तथा आर्थिक तन्त्र की चिन्ता की थी। ५. पूंजीवादी व्यवस्था में पूर्ण स्वतन्त्रता ५. इच्छा पर अंकुश लगाए बिना स्वतन्त्रता स्वछन्दता बन जाती है। ६. सब कार्य पैसे से सिद्ध हो जाते ६. पैसा यदि साधन न रहकर साध्य बन जाए तो वह मनुष्य को दीन-हीन बना देता है। ७. पैसे पर यदि राज्य का अधिकार ७. राज्य सत्ता भी अत्याचार कर होगा तो शोषण नहीं होगा। सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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