SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 246
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ महाप्रज्ञ-दर्शन इस सहज सरल जीवन की पोथी का अनुवाद जब तर्क की भाषा में किया गया तो दर्शन-शास्त्र बन गया, जिसकी जटिलता जग-जाहिर है। लेकिन द्रष्टा दार्शनिक से भिन्न है। द्रष्टा प्रत्यक्ष देखता है, दार्शनिक अनुमान प्रमाण से जानता है। दोनों ही प्रक्रियाओं के अपने-अपने मजे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ जब द्रष्टा होते हैं तो उन्हें शिकायत रहती है कि "अन्तःदर्शन लुप्त और यह चंचल मन आजाद हो गया, श्रद्धा है संगुप्त और यह, तर्क एक उन्माद हो गया।" तर्क का उन्माद वाद को जन्म देता है, श्रद्धा हार्द को पकड़ती हैवाद लेकर तुम चलो वह डगमगाता-सा लगेगा हाद लेकर तुम चलो वह जगमगाता-सा लगेगा डगमगाते मन की चंचलता का क्या कहनाचपलता को जोड़ देखो सत्य अस्थिर सा लगेगा चपलता को छोड़ देखो सत्य सुस्थिर सा लगेगा। यह तो हुई द्रष्टा की वाणी। दार्शनिक के रूप में आचार्य महाप्रज्ञ कुछ और ही कह रहे हैं स्पष्ट नहीं अनुमान चाहिए, पास नहीं व्यवधान चाहिए मधुर कल्पना संजोने को, निर्गुण को साकार मान लूं प्यार करो तो हार मान लू। एक दार्शनिक की अनुमान-प्रियता तो समझ में आती है क्योंकि कहा जाता है, तर्क-रसिक प्रत्यक्ष विषय को भी अनुमान द्वारा ही भोगना चाहते हैं-प्रत्यक्षमपि विषयम् अनुमानेन बुभुत्सन्ति तर्करसिकाः, लेकिन प्यार करो तो हार मान लूं-का यह शहद में डूबा स्वर एक बार चौंका देता है। शब्द कभी-कभी धोखा दे सकते हैं। अहिंसा प्यार ही तो है और प्रतिक्रमण हार ही तो है-जीत तो आक्रमण में है, प्रतिक्रमण में तो हम लौट आते हैं, जीतने के लिए तो आगे बढ़ना होता है, लौट आना तो हार जाना ही है। लेकिन अहिंसक-प्यार करने वाला-सदा प्रतिक्रमण ही करता है, आक्रमण कभी नहीं करता। वह सांसारिक दृष्टि से सदा हारता है। तब ही तो अहिंसक पर पलायनवाद का आरोप लगाया जाता है। लेकिन संसार के सभी प्रेमियों ने हार को ही चुना है। विजय की कामना कभी नहीं की। विजिगीषा-जीतने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy