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________________ २१० महाप्रज्ञ-दर्शन उदाहरण भरे पड़े हैं जहां मनुष्य लोभ से ऊपर उठा है और उसने काम पर विजय पाई है। विज्ञान ने जो मान्यताएं हमें दी उन्होंने जीवन को कोई गहरा अर्थ नहीं दिया । वस्तुस्थिति यह है कि जीवन की और अस्तित्व की जो गहराई है उसे इसलिए प्रदर्शित नहीं किया जा सकता कि वह सूक्ष्म है और विज्ञान की यह जिद है कि जो प्रदर्शित न हो सके वह सत्य ही नहीं है। जीवन के प्रति विज्ञान की इस दृष्टि ने हमारी शिक्षा व्यवस्था को खोखला कर दिया है। दर्शन और धर्म हमें वे दृष्टि और विश्वास देते हैं जो जीवन का मार्ग प्रशस्त कर सके। पहली बात तो यह है कि विज्ञान केवल कुछ प्राक् कल्पनाएं देता है सिद्धान्त नहीं। उन प्राक् कल्पनाओं के आधार पर कुछ कार्य सिद्ध हो सकते हैं। इस प्रवृत्ति ने हर क्षेत्र में काम चलाऊ नीति अपनाने की मानसिकता दे दी है। परिणामस्वरूप आज राजनीति सिद्धांत विहीन हो गई है। उस पर अवसरवादिता सवार है। जिसे विज्ञान प्राक् कल्पना (Hypothesis) कहता है वह मूल्यों के क्षेत्र में वस्तुतः अवसरवादिता बन जाती है। पदार्थ जगत् में तो प्राक् कल्पनाओं से काम चल सकता है किंतु जीवन इतना सस्ता नहीं है कि उसे सिद्धान्त के बिना काम चलाऊ मान्यताओं के आधार पर चलाया जा सके। जीवन के लिए हमें उसका केन्द्र निर्धारित करना होता है। वह केन्द्र काम चलाऊ नहीं होता। हमारे समस्त विचार उस केन्द्र के ही ईदगिर्द घूमा करते हैं। यदि वह केन्द्र निर्धारित नहीं है तो हमारे सारे विचार बिखर जाते हैं। विचार के बिखरने पर हमारे कर्म भी बिखर जाते हैं। ऐसे जीवन में और पशु के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं होता । अस्तित्व में और जीवन में अन्तर है। अस्तित्व का अर्थ है-बने रहना । जीवन का अर्थ है किसी प्रयोजन के लिए प्रयत्नशील रहना। पशु का अस्तित्व होता है जीवन नहीं क्योंकि उसका कोई प्रयोजन नहीं होता। यदि मनुष्य भी प्रयोजनहीन है तो उसका भी अस्तित्व हो सकता है जीवन नहीं। जीवन की अनेक पहेलियों में एक पहेली है विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाना। सवेरे से शाम तक हमारे सामने विरोधी तत्त्व और विचार आते रहते हैं। हमें उन विरोधी विचारों के बीच में से अपना रास्ता चुनना होता है। विरोधी विचारों के बीच में से समन्वय का रास्ता निकालने की प्रक्रिया ही वस्तुतः जीवन है। यह समन्वय का मार्ग बना बनाया नहीं है हर एक को अपना मार्ग स्वयं बनाना होता है। विज्ञान में हम जहाँ तक हमारे पूर्ववर्ती पहुंचे हैं वहां से आगे चलना होता है। किंतु जीवन में हमें सबको प्रारम्भ से चलना होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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