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________________ २०० महाप्रज्ञ-दर्शन इसी भावना को आचार्य हरिभद्र ने अपने शब्दों में प्रकट किया कि युक्ति संगतता के सम्मुख न कोई अपना है, न कोई पराया पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः।। रागद्वेष से युक्त व्यक्ति युक्तिसंगत बात कर ही नहीं सकता और जो युक्तिसंगत बात करेगा, वह रागद्वेष में फंस ही नहीं सकता | धर्म के तर्क संगत होने का यही अर्थ है। तर्क का प्रयोग दर्शन शास्त्र में हुआ किंतु दर्शन का मुख्य अर्थ था-सत्य को देखना। जीवन की समस्याएं तर्क से नहीं सुलझती हैं। वे सुलझती हैं सत्य के साक्षात्कार से। जहां तर्क समाप्त होता है, वहां वास्तविक दर्शन-सत्य का साक्षात्कार-प्रारम्भ होता है। तर्कातीत सत्य तर्क का अपना उपयोग है। जो व्यवस्थाएं हमने बनाई हैं उनका आधार तर्क है और तर्क के आधार पर उन्हें बदला भी जा सकता है-बदला जाना भी चाहिए। सारी व्यवस्थाओं का विकास इसी प्रकार होता है। हम अराजकता से राजतंत्र पर और राजतंत्र से लोकतंत्र पर तर्क के सहारे आये हैं। ये हमारे विकास का इतिहास है। पशु ने ऐसा कोई विकास नहीं किया क्योंकि उसमें तर्क बुद्धि नहीं है। किंतु तर्क हमें पक्षपात से मुक्ति नहीं दिला पाता। तर्क का जितना उपयोग सत्य को सिद्ध करने के लिए हुआ है-असत्य को सिद्ध करने के लिए भी तर्क का उपयोग उससे कम नहीं हुआ। किंतु साक्षात्कार सदा सत्य का ही सहायक बना है। सम्भावनायें और योजनायें अनेकान्त हमें संशय में डाल सकता है-यह आक्षेप बहुत पुराना है। वस्तुतः अनेकान्त संशय में नहीं डालता अपितु संभावनाओं के द्वार खोलता है। निर्णय वर्तमान पर्याय के आधार पर किया जाता है किंतु यदि हम भविष्य की पर्यायों की संभावना पर ध्यान न दें तो विकास के लिए कोई योजना ही नहीं बना सकेंगे। कोई भी निर्णय जब तक द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की समझ के साथ न लिया जाये तब तक वह निर्णय ठीक नहीं हो सकता। विज्ञान में संभावनावाद का सिद्धांत मान्य है। संभावना का अर्थ संशय नहीं है। संभावना का अर्थ है-बदल सकने की क्षमता। व्यवहार वर्तमान के आधार पर होगा, योजना भविष्य की संभावना के आधार पर बनेगी। जिस प्रकार भविष्य के लिए योजना बनाना आवश्यक है उसी प्रकार अतीत से सीखना भी आवश्यक है। वस्तुतः अतीत, वर्तमान और भविष्य का विभाजन हम अपनी अपेक्षा से करते हैं। काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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