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________________ १६० महाप्रज्ञ - दर्शन समय गति करता है- अतीत से वर्तमान में होता हुआ भविष्य में जाता है। आईंस्टीन के अनुसार देश काल मिलकर एक तत्त्व हैं - जो स्थैतिक (static) है। इस स्थैतिक देश - काल के पटल पर कुछ नया घटित नहीं होता, अपितु सब कुछ पहले से ही चित्रलिखित है । जब हम उसे देखते हैं तो वह केवल अभिव्यक्त होता है । चतुः आयामी देश काल एक गणितीय स्थापना है । बोलचाल की भाषा में उसे कहने के लिए हम चतुः आयाम शब्द का प्रयोग करते हैं । पाइथागोरस प्रमेय (P-Theorem) के अनुसार समकोण त्रिकोण की दो भुजाओं के वर्ग का योग कर्ण के वर्ग के बराबर होता है । उदाहरणतः यदि एक समकोण त्रिकोण की एक भुजा ३ इंच और दूसरी भुजा ४ इंच है तो तीसरी भुजा ६ + १६ = २५ =५ इंच होगी। इसके समानान्तर देश और काल को देश-काल में परिणत करते समय वैज्ञानिकों ने यह माना कि देश और काल भले कुछ भी हो किंतु देश-काल और उन देश और काल के बीच अनुपात एक ही रहता है जैसे समकोण त्रिकोण के दो भुजाओं की लम्बाई कुछ भी क्यों न हो किंतु कर्ण की लम्बाई का उस लम्बाई के साथ अनुपातिक संबंध वही रहता है । आईंस्टीन के गणित के गुरु Minowshi ने यह निष्कर्ष निकाला कि किसी भी व्यक्ति के अतीत और भविष्य अब और यहीं ( Now and here) मिलते हैं । पदार्थ और ऊर्जा की युति आईंस्टीन के सापेक्षता सिद्धान्त का एक दूसरा और महत्त्वपूर्ण पक्ष है - पदार्थ और ऊर्जा की एकता जिसे हम एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में शरीर और मन की एकता भी कह सकते हैं। पूर्व और पश्चिम दोनों में भ्रम की चर्चा हुई है । भ्रम का यह अर्थ नहीं है कि पदार्थ है नहीं, किंतु भ्रम का यह अर्थ कि पदार्थ जैसा है हम उसे वैसा नहीं देख पा रहे हैं। इसके साथ ही पदार्थ है जैसा है- हम उसे भाषा में उस प्रकार कह नहीं पा रहे हैं। भारत में अन्न से मन बनने की बात कह कर एक अर्थ कहा गया कि पदार्थ का द्रव्यमान यदि प्रकाश की गति के वर्ग से गुणित किया जाये तो वह ऊर्जा बन जायेगा । सूत्र है—E=MC2 | E का अर्थ है Energy (ऊर्जा), M = Mass (द्रव्यमान) और C प्रकाश की गति का द्योतक है। इसका यह अर्थ होता है कि पदार्थ के छोटे से छोटे कण में भी बहुत बड़ी मात्रा में घनीभूत ऊर्जा है। इसी कारण किसी सितारे के केंद्र में तारे की आकर्षण शक्ति से आकृष्ट होकर जब चार हाइड्रोजन के परमाणु मिलकर एक हीलियम परमाणु बनते हैं तो उस हीलियम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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