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________________ १८५ सापेक्षता और अनेकांत : विज्ञान और दर्शन को स्वीकार करें-या दो विरोधी एक साथ नहीं रह सकते इसे स्वतःसिद्ध सत्य मानकर अपने अनुभव का अपलाप करें। दर्शन के क्षेत्र में सापेक्षता की चर्चा आधुनिक युग में संक्षेप में इतनी ही दूर तक गई लगती है। विज्ञान-सम्मत सापेक्षता इधर विज्ञान की खोजों ने सापेक्षता को कुछ नये आयाम दे दिये हैं जिनकी संक्षिप्त चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। पांच फुट लम्बा व्यक्ति चार फुट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा लम्बा है और छह फुट लम्बे व्यक्ति की अपेक्षा छोटा है-यह बात बहुत स्पष्ट है किंतु आईन्सटीन ने जिस सापेक्षता का वर्णन किया है वह सापेक्षता यह बिल्कुल नहीं है। आईन्सटीन का कहना है कि पांच फुट लम्बा व्यक्ति कभी सवा पांच फुट का हो जाता है और कभी पौने पांच फुट का ही रह जाता है। इतना ही नहीं वह व्यक्ति एक ही अवधि में कभी पचास वर्ष का हो जाता है और कभी दस वर्ष का रह जाता है। यदि हम जानना चाहें कि वह व्यक्ति वस्तुतः कितना लम्बा है तो हम यह जान ही नहीं सकते। किसी पदार्थ की वास्तविक लम्बाई को जानने का प्रयत्न ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति की जमीन पर पड़ने वाली परछाई की वास्तविक लम्बाई जानने का प्रयत्न। हम केवल इतना ही बता सकते हैं कि उसकी परछाई एक निश्चित समय और स्थान पर कितनी लम्बी होती है, किंतु यह बताना संभव नहीं है कि वह वस्तुतः कितनी लम्बी है क्योंकि समय और स्थान के अनुसार वह लम्बाई घटती और बढ़ती रहती है। सापेक्षता का यह अर्थ करना कि एक रेखा अपने से लम्बी रेखा की अपेक्षा छोटी है और अपने से छोटी रेखा की अपेक्षा लम्बी है-बहुत सामान्य-सी बात है। डॉ० नथमल टांटिया का कहना है यह तो "सिद्ध-साधन" है अर्थात् जो बात पहले से ही स्पष्ट है, हम उसे तर्कों द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न कर रहे हैं। आईन्सटीन के सापेक्षता सिद्धान्त ने जो तथ्य उद्घाटित किया वह सर्वथा नवीन है अतः उसे थोड़ा विस्तार में समझना होगा। आईन्सटीन ने हमारे सामने तीन सिद्धान्त रखे - १. कोई भी पदार्थ जैसे-जैसे अपनी गति तेज करता है उसका माप छोटा होता चला जाता है यहाँ तक कि यदि वह प्रकाश की प्रति सेकेण्ड १,८६,००० मील वाली गति से चले तो उसका माप शून्य हो जाता है और वह दिखना बंद हो जाता है। २. जैसे-जैसे पदार्थ की गति तेज होती है, उसका द्रव्यमान बढ़ता जाता है यहाँ तक कि प्रकाश की गति पर उसका द्रव्यमान अनन्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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