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________________ १६८ महाप्रज्ञ-दर्शन १. व्यक्तिगत स्तर पर मारना पीटना, व्यभिचार, गर्भपात आदि साक्षात् शारीरिक हिंसा के अन्तर्गत आते हैं। २. युद्ध में सामूहिक रूप से हिंसा होती है। ३. मानसिक अथवा वाचिक क्रिया के द्वारा किसी को चोट पहुंचाना भी हिंसा है। ४. जातीय अथवा साम्प्रदायिक स्तर पर भेदभाव करना सामूहिक रूप से वैचारिक हिंसा का उदाहरण है। चारों ही प्रकार की हिंसाओं के समाचार अखबारों में प्रतिदिन पढ़ने को मिलते हैं। इतिहास युद्धों के वर्णन से भरा हुआ है। शस्त्रीकरण के आंकड़े संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार १६०० से १६८८ के बीच ८०००,०००,०००,००० (आठ नील) डालर शस्त्रों पर व्यय हुए। अर्थात् संसार के प्रति व्यक्ति २५६० डालर खर्च हुए जो कि भारतीय व्यक्ति की जीवनभर की औसत आय है। इंग्लैण्ड में जितना व्यय लोगों के आवास पर होता है उससे पांच गुणा शस्त्रों पर होता है। १६८८ में विकासशील देशों के ४,०००,०००,००० (चार अरब) मनुष्यों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य पर जितना व्यय होता था, अकेला तत्कालीन सोवियत संघ शस्त्रों पर कहीं उससे अधिक व्यय करता था। इंग्लैण्ड में अनुसंधान और विकास पर जितना खर्च होता है उसका ५० प्रतिशत केवल सेना पर खर्च होता है। अमेरिका में सेना पर ३००,०००,०००,००० डालर प्रतिवर्ष खर्च होता हैं और शिक्षा पर होने वाले खर्च के आंकडे देखते हैं तो वे दाल में नमक के बराबर भी नहीं हैं। इसका यह अर्थ होता है कि अब भी हम इस विसंगति में जी रहे हैं कि हमारे परिश्रम का अधिकांश फल शस्त्र जैसे विनाशकारी साधनों को मिलता है न कि रचनात्मक कार्यों को। सेना और शस्त्र देश की रक्षा के लिए आवश्यक समझे जाते हैं और आवश्यक हैं भी। किंतु यदि मनुष्य इस तर्क को समझ सके कि जिस लाभ के लिए वह किसी पर आक्रमण करता है, वहीं राष्ट्र यदि युद्ध में होने वाले व्यय को रचनात्मक कार्यों में लगा दे तो उससे कई गुणा लाभ उसे हो सकता है। यदि आक्रमण समाप्त हो जाए तो सुरक्षा की व्यवस्था करना भी अनावश्यक हो जाए। यह विशुद्ध गणितीय तर्क है। यदि मानव जाति इसे नहीं समझ पा रही है तो यह उसका निपट अज्ञान है। और अज्ञान पर पलने वाली युद्ध संस्थाओं को शूरवीरता का गौरव प्रदान करना दोहरी मूर्खता का सूचक है। यह बारंबार कहा गया है कि युद्ध का जन्म मनुष्य के मन में होता है। राग और द्वेष का बीज ही युद्ध का वटवृक्ष बनता है। जैनाचार्यों ने राग के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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