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________________ अहिंसा १६५ के संतुलन पर टिका है। जिस वातावरण से पृथ्वी घिरी है उस वातावरण में प्रत्येक तत्त्व एक अनुपात में है। इस अनुपात को बनाये रखने में जीवन के हर रूप का योगदान है। वातावरण में २१ प्रतिशत ऑक्सीजन है, समुद्र में ३.४ प्रतिशत नमक है, पृथ्वी के अधिकांश क्षेत्र पर ६० प्रतिशत से १०० प्रतिशत फॉरनेहाइट के बीच तापमान है। यदि इस अनुपात में एक सीमा से अधिक अन्तर पड़ जाये तो जीवन सर्वथा समाप्त हो जायेगा। जैसा कि राजदूत अदताई-ई-स्टीवेन्सन ने कहा है “यह पृथ्वी एक जहाज की तरह है जिसमें हम सब यात्री की तरह सवार हैं, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इस जहाज के रक्षक हैं। हम इनकी रक्षा करेंगे तभी जहाज सुरक्षित रह सकता है।" यदि हम एकान्त में किसी ऐसी जगह पर घूमने चले जायें, जहां मनुष्य ने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न की हो तो झरनों से फूटता पानी, झूमकर आती नदियां, सांय-सांय करके बहती हवा, पेड़ों पर लिपटती लतायें, पक्षियों का चहचहाना और पशुओं की कूदफाँद हमें यह अनुभव करवा सकती है कि अपने सहज रूप में प्रकृति जीवन के लिए कितनी अनुकूल है। किंतु जब मनुष्य इस प्रकृति से छेड़छाड़ करता है तो चौंकाने वाले दुष्परिणाम सामने आते हैं। पृथ्वी पर २३,०००,०००० (तेईस करोड़) टन मिट्टी प्रतिवर्ष बंजर हो जाती है, प्रति मिनट ६५ एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं, प्रतिदिन ५ से १० प्रजातियां सदा के लिए लुप्त हो रही हैं। अकेले ब्रिटेन की चिमनियों से प्रतिवर्ष ४,०००,000 टन सल्फरडाईऑक्साइड उगला जा रहा है। वाहनों से निकलने वाला कार्बनडाई ऑक्साइड पृथ्वी के तापमान को निरन्तर बढ़ा रहा है जिससे ध्रुवों पर बर्फ के पिघलने का डर बन रहा है। प्रतिवर्ष वायु में मिलों से १५० मिलियन (१५,०००,०००) टन प्रदूषण वायु में फेंका जा रहा है। ऊर्जा का प्रश्न भी विकट है। ऊर्जा पृथ्वी पर सर्वव्यापी है। उसका सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। वैज्ञानिक उपकरणों में सर्वत्र ऊर्जा आवश्यक है। कोयला ऊर्जा का एक स्रोत है। जल दूसरा स्रोत है। पेट्रोल तीसरा स्रोत है। ये सब सीमित हैं। आणविक शक्ति भी ऊर्जा देती है किंतु १६८० के बाद से आणविक शक्ति के प्रयोग के खतरे भी हमारे सामने आने लगे हैं। रेडियो एक्टिव कूड़ा हजारों वर्षों तक खतरा बना रहता है। जल से ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए जो बांध बनाये जाते हैं, वह भी प्रकृति के संतुलन के लिए खतरा ही बनते हैं। जब आर्थिक विकास के किसी भी कार्य में प्रकृति का उपयोग होगा तो सूक्ष्म स्तर पर हिंसा भी अपरिहार्य है। इसलिए न सर्वथा हिंसा से बचा जा सकता है और न सर्वथा विकास को रोका जा सकता है। प्रश्न वस्तुतः दूसरा है। कोई भी विकास करने के लिए जो कच्चा माल चाहिए वह प्रकृति से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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