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________________ अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए । मनुष्य को मूर्च्छित करने या उसका प्राण- वियोजन करने पर उसे जैसी कष्टानुभूति होती है वैसी ही वनस्पति को भी होती है। ० इमंपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । ० ० महावीर उवाच मनुष्य जिस प्रकार चैतन्ययुक्त है, वनस्पति भी उसी प्रकार चैतन्ययुक्त है । से बेमि- संति तसा पाणा, तं जहा - अंडया, पोयया, जराउया, रसया, संसेयया, संमुच्छिमा, उब्भिया, ओववाइया । मैं कहता हूं - स प्राणी ये हैं- अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूर्च्छिम, उदभिज्ज और औपपातिक । • सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूयाणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिं सत्ताणं अस्सायं अपरिणिव्वाणं महब्भयं दुक्खं त्ति बेमि । मैं कहता हूं कि सभी प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों के लिए पीड़ा अनिष्ट, भयंकर तथा दुःखद है। वनों के बेहिसाब काटने का तथा कीटाणुनाशक औषधियों के प्रयोग का दुष्प्रभाव "हमारा पर्यावरण" ग्रंथ में दिखाया गया है। उपग्रहों के ताजे चित्र बताते हैं कि देश में हर साल १३ लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं। वन विभाग की ओर से प्रचारित सालाना दर के मुकाबले यह आठ गुना ज्यादा है (पृष्ठ ५२) 1 अंधाधुंध पेड़ कटाई का असर सबसे पहले १६६० महसूस होने लगा । बाद में वह असर एकदम बढ़ता गया । चौड़ी पत्ती वाले पेड़ कट गए जिनके पत्ते बारिश के जोरदार थपेड़े से अच्छी मिट्टी को बचाते थे। अब बस भुरभुरी मिट्टी ही रह गई। अब वहां जल विजया (यूपेटोरियम) नामक खरपतवार के सिवाय कुछ पैदा नहीं होता। किसानों को यह भी शिकायत है कि नदी नाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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