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________________ (xiv) समणी शारदाप्रज्ञा तथा समणी ऋतुप्रज्ञा । ये समणियां मेरे कृतज्ञता की अपेक्षा मेरी 'वंदामि नमस्सामि' की पात्र हैं । समणी मंगलप्रज्ञाजी ने तो प्रूफरीडिंग के मेरे प्रमादों का सशोधन कर वह दुर्लभ कार्य किया जो किसी अन्य के द्वारा होना कठिन ही था । मेरे शोधछात्र श्री उम्मेदसिंह बैद ने मेरे बोले हुए को लिपिबद्ध किया तथा मेरी शोधछात्रा श्रीमती मञ्जु नाहटा ने आवरण पृष्ठ बनाया । मेरे पूर्व शोधछात्र डॉ० मोहनचन्द एवं डॉ० अनेकान्त जैन ने ग्रन्थ का अन्तिम प्रूफ देखा। इन चारों को मेरा आशीर्वाद । श्री शिवकुमार वर्मा, शान्ति प्रिन्टर्स एण्ड सप्लायर्स, दिल्ली को ग्रन्थ को हृदयग्राही रूप में मुद्रित करने के लिये आभार । ग्रन्थ की पाण्डुलिपि दो वर्ष पूर्व तैयार हो गयी थी, प्रकाश में अब आ रही है। इस विलम्ब का भी एक लाभ हुआ । पाण्डुलिपि रूप में ही यह ग्रन्थ एक हाथ से दूसरे हाथ में जाता रहा और उनका आशीर्वाद पाता रहा । जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) के प्रथम कुलाधिपति जैनविद्यामनीषी स्वर्गीय श्री श्रीचन्द जी रामपुरिया ने इस ग्रन्थ को 'महाप्रज्ञ की सारी चिन्तन-धारा को हृदयग्राही बनाने वाला' माना तो उसी संस्था के तात्कालिक कुलपति प्रोफेसर भोपालचन्द लोढ़ा ने इसे आचार्य महाप्रज्ञ के योगदान का समीक्षात्मक मूल्यांकन करने वाला घोषित किया। प्राच्यविद्या के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लाल बहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मान्य विश्वविद्यालय) दिल्ली के कुलपति प्रोफेसर वाचस्पति उपाध्याय ने लिखा कि 'यह महान् ग्रन्थरत्न सुधी समाज में समादृत होगा' तो सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के कुलपति डॉ० अभिराज राजेन्द्र मिश्र को इस ग्रन्थ की 'स्थापनायें इदम्प्रथमतया प्रवर्तित होते हुए भी अन्तिम' प्रतीत हुईं । मैंने जैन विश्वभारती संस्थान के जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म दर्शन विभाग के प्रोफेसर एवम् अध्यक्ष पद पर चार वर्ष से अधिक काल तक कार्यरत रहते हुए इस ग्रन्थ का निर्माण किया तो मेरे सहकर्मी इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को देखकर हर्षित क्यों न होतें? प्राकृत एवं जैनागम विभागाध्यक्ष, विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ० जगतराम भट्टाचार्य ने इस ग्रन्थ को 'आचार्य महाप्रज्ञ के चिन्तन को एक अपूर्व शैली में प्रस्तुत करने वाला बताया। विश्वविद्यालय के पूर्व कुलसचिव एवम् अहिंसा-शांति शोध विभाग के अध्यक्ष डॉ० बच्छराज दुगड़ ने ग्रन्थ की समीक्षात्मक पद्धति को सराहा। उनके ही विभाग के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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