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________________ १२८ महाप्रज्ञ-दर्शन सकता, पर सुख को अनुभव तो किया ही जा सकता है। सुख का एक बड़ा स्रोत है-आपसी प्रेम। जहां दस लोग मिलकर एक दूसरे के दुःख-दर्द में ही नहीं सुख में भी हिस्सेदारी बंटा सके, वहां सुख है। पिछले पचास वर्षों में पड़ोसी-पड़ोसी के बीच, और परिवार के एक सदस्य तथा दूसरे सदस्य के बीच दूरियां बढ़ी हैं, हालांकि यातायात के साधन कहीं अधिक सुलभ हैं। नया परिदृश्य : यन्त्रीकृतमानव अभी तक आजीविका का मुख्य साधन कृषि था। आज गांव का किसान मिल में मजदूर बन गया है। मिल की मजदूरी मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देती, मशीन बना देती है। आज के रोजगार के साधन अमानवीकरण के साधन हैं। शाम को खेत से लौटने वाले किसान में और मिल से बाहर निकलने वाले मजदूर में एक अन्तर है-किसान प्रफुल्लित है, मजदूर बुझ गया है। मजदूर जो कुछ मिल में बनाता है, वह किसके काम आयेगा इसका उसे कुछ पता नहीं। इसलिए उसके पास वह व्यक्ति कभी कृतज्ञता ज्ञापित करने नहीं आता जो उसके अथक परिश्रम के फल को भोगता है। मिल मालिक के साथ तो मजदूर के संबंध सदा ही तनावपूर्ण रहते हैं। दफ्तरों में काम करने वाले कर्मचारियों को अपने काम में कोई रस नहीं है। उसका एकमात्र रस अपना वेतन बढ़वाने में है। बड़े-बड़े दफ्तरों में वस्तुतः क्या होता है-यह पता चलाना ही कठिन है। उन दफ्तरों में फाइलें इधर से उधर घूमती रहती हैं। कभी भारत के प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने कहा था कि सरकार जो एक रुपया खर्च करती है उसमें से जिसके लिये वह एक रुपया खर्च किया जाता है उस तक तो केवल प्रति रुपया १५ पैसे ही पहुंचते हैं। यह केन्द्रीकरण का चमत्कार है। बड़े-बड़े उद्योग बिना केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था के चल ही नहीं सकते। एक रुपये में से ८५ पैसे दफ्तरी कार्यवाही में या लालफीताशाही में ही नहीं लगते हैं, उसका बहुत बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भट्ठी में भी झोंक दिया जाता है। जब आर्थिक प्रगति होती है तो ईमानदार आदमी की कठिनाई और बढ़ जाती है क्योंकि उस आर्थिक प्रगति का बड़ा भाग काले धन में बदल जाता है। यह काला धन बाजार में मंहगाई इतनी बढ़ा देता है कि ईमानदारी से पैसा कमाने वाले को आर्थिक प्रगति का लाभ कभी महसूस नहीं हो पाता। यंत्रीकरण ने मनुष्य की सर्जनात्मकता छीन ली है। एक समय इसी देश में जयशंकर प्रसाद, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, मुंशी प्रेमचंद, महादेवी वर्मा और सुमित्रानंदन पंत जैसे विश्वविख्यात साहित्यकार हो गये। अहिन्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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