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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन __ हो। ऐसी स्थिति में केन्द्र का यह दायित्व बनता है कि सशक्त घटक से कमजोर घटक को सहायता दिलाए। इसे अपने ही शरीर के स्वस्थ अंग द्वारा अस्वस्थ अंग के उपचार करने जैसा समझना चाहिए। ४. हर छोटे घटक को यह अधिकार होना चाहिए कि वह अपनी सफलता और असफलताओं का विश्लेषण स्वयं करे। केन्द्र जो कुछ भी कहे वह आदेश या उपदेश के रूप में न होकर सुझाव के रूप में होना चाहिए। ५. केन्द्र का कार्य ऐसा वातावरण बनाना है कि कर्मचारी अपने कर्म में रस ले सके। उसकी दृष्टि कर्मचारी पर होनी चाहिए न कि कार्य पर। यदि कर्मचारी आनन्दित होगा तो उसके द्वारा सम्पन्न कार्य तो स्वयं ही सुचारू हो जायेगा। इसका अर्थ यह है कि हमारा लक्ष्य मनुष्य है न कि कर्म । ज्ञान और उत्साह मनुष्य में रहता है। यदि इन दो तत्त्वों को पुष्ट किया जा सके तो कर्म स्वतः ही पुष्ट हो जायेगा। उपर्युक्त सुझाव अमरीकी अर्थशास्त्री शूमेखर ने दिये हैं। यहां ये सुझाव इसलिए दिए हैं कि आचार्य महाप्रज्ञ के चिन्तन को यदि विस्तार दिया जाये तो उसमें से भी कुछ ऐसे ही बिंदु फलित होने की आशा की जा सकती है। उपसंहार __वस्तुस्थिति यह है कि आचार्य महाप्रज्ञ जैसा एक धर्माचार्य विचार दे सकता है, किंतु उसकी क्रियान्विति सामाजिक प्राणियों के पुरुषार्थ पर निर्भर करती है। हृदय परिवर्तन का पक्ष धर्माचार्यों के हाथ में है किंतु व्यवस्था परिवर्तन सत्ताधारी ही कर सकते हैं। कार्लमार्क्स को लेनिन मिल गये थे, किंतु न महात्मा गांधी को लेनिन मिल पाये और न आचार्य महाप्रज्ञ को, जो उनके विचारों को व्यवस्था के स्तर पर साकार रूप दे सके। महात्मा गांधी सत्ता के प्रति उदासीन थे। आचार्य महाप्रज्ञ भी सत्ता के प्रति निस्पृह हैं। समाजशास्त्रियों के बीच भी अभी ऐसा कोई वर्ग दिखाई नहीं दे रहा है जो आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा दिये गये ढांचे के आधार पर एक सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था का स्वरूप दे सके। इस दृष्टि से संभवतः महात्मा गांधी अधिक भाग्यशाली रहे । वस्तुस्थिति यह है कि महात्मा गांधी एक गृहस्थ होने के नाते उन सीमाओं से नहीं बंधे थे जिन सीमाओं से एक तेरापंथी जैन आचार्य होने के नाते आचार्य महाप्रज्ञ बंधे हैं। इन दोनों युगपुरुषों में व्रतों की दृष्टि से बहुत अधिक साम्य है, किंतु जहां एक ओर महात्मा गांधी समाज के लिए आवश्यक उत्पादक शारीरिक श्रम को बहुत महत्त्व देते हैं वहां आचार्य महाप्रज्ञ उसकी ओर केवल इंगित ही कर पाते हैं और दूसरी ओर आचार्य महाप्रज्ञ आध्यात्मिक साधना का एक विस्तृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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