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________________ ξο महाप्रज्ञ - दर्शन I दुःख के साथ व्याप्ति है । यदि यह समझ लिया जाये तो अतिभाव पर अंकुश नहीं लगाना पड़ेगा, मनुष्य स्वयं ही अतिभाव से बचना चाहेगा । इसी बात को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में भी देखें । एक व्यक्ति चिन्तित है कि कल बीमारी आ गई या सन्तान निकम्मी निकल गई या बुढ़ापे में शरीर ने काम न किया तो क्या होगा ? और इसीलिए उसके पैसा जोड़ने की इच्छा का कोई अंत नहीं है। दूसरा व्यक्ति सोचता है कि मैं अपनी जीवनचर्या नियमित रखूं ताकि बीमार न पडूं । अपनी संतान का ठीक पालन पोषण करूं ताकि वह निकम्मी न निकल जाये । समाज सेवा की कुछ ऐसी योजनायें बनाकर रखूं कि बुढ़ापे में भी दूसरों के लिए सार्थक बना रह सकूं। वह इन दिशाओं में भी अपना श्रम और शक्ति लगाता है और जितना आवश्यक है उतना अर्थोपार्जन भी करता है। निश्चित ही वह दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक संतुलित ढंग से जीवन जी पाता है । परिग्रह की यह सीमा यदि समझ में न आये और जितना परिग्रह उतना सुख यह गलत बात समझ में आ जाये तो फिर भ्रष्टाचार को रोकने का कोई कारगर उपाय भी शेष नहीं रहता क्योंकि सुख तो सभी चाहते हैं और यदि सुख का साधन परिग्रह है, तो परिग्रह अर्जित करने के लिए अपनाया गया कोई भी मार्ग उचित ही ठहरेगा । अपरिग्रह की अर्थात् अल्प परिग्रह की बात अब तक धर्म करता रहा है। आज विज्ञान का युग है । विज्ञान के पाठ्यक्रम में स्वास्थ्य की शिक्षा देते समय और पर्यावरण की समस्या पर विचार करते समय हमें असीमित परिग्रह को लक्ष्य बनाने के दुष्परिणाम स्पष्टतः अंकित करने होंगे । समाजवाद भी अपरिग्रह नहीं ला पाया इस दिशा में व्यवस्था के रूप में सबसे अधिक कार्य समाजवाद ने किया। किंतु समाजवाद पर टिके साम्यवादी देश भी शस्त्रों के संग्रह से छुट्टी नहीं पा सके। बल्कि चीन जैसे देश ने तिब्बत को निगलकर अपनी विस्तारवादी नीति का ही परिचय दिया । विज्ञान भौतिक दूरी को दूर कर रहा है, लेकिन हृदय की दूरियां शायद बढ़ रही हैं। भूमंडलीकरण यदि हमें यह समझा सके कि परमार्थतः मनुष्य जाति एक है, जिसके बीच देश अथवा राष्ट्र के नाम पर खड़ी की गई दीवारें भी पारमार्थिक नहीं है तो राष्ट्रों के बीच चल रही होड़ वह कुत्सित रूप लेने से बच सकती है, जहां हर राष्ट्र अपना माल दूसरे राष्ट्र में बेचकर समृद्ध होने का स्वप्न देखता है। यह समझ जगानी होगी कि हम किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाकर खुद फायदा नहीं उठा सकते। उस स्थिति में यह न होगा कि जहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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