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________________ महाप्रज्ञ-दर्शन अनुभवों से सीखकर हम कौनसी नई व्यवस्था सोच सकते हैं। इतना स्पष्ट है हम इतिहास के प्रवाह को उल्टी दिशा में नहीं मोड़ सकते, किंतु यह भी स्पष्ट है कि कुछ तत्त्व ऐसे हैं जो कालातीत हैं और इसीलिए इतिहास से परे हैं। उन तत्त्वों को यह कहकर नहीं नकारा जा सकता कि वे अतीत काल के हैं। केन्द्र है मनुष्य पहला तथ्य यह है कि पदार्थ मनुष्य की आवश्यकता पूरी करने के लिए है। मनुष्य इसलिए नहीं है कि वह पदार्थ उत्पन्न करता रहे और संग्रह करता रहे, भले ही वह उसके काम न आये अथवा इससे भी आगे बढ़कर भले ही वह उसके लिए अहितकर भी सिद्ध क्यों न हो जाये। हेरोइन से मनुष्य का क्या भला होता है, लेकिन फिर भी हेरोइन पैदा की जाती है, क्योंकि वह बाजार में बिक सकती है। महात्मा गांधी ने भारत जैसे गरम देश के लिए शराब को अनावश्यक घोषित किया, लेकिन देखने में यह आ रहा है कि जैसे-जैसे विकास के कदम बढ़ते हैं, शराब के ठेकों की संख्या भी बढ़ जाती है। गांवों में भले ही पीने के स्वच्छ जल न हो, किंतु शराब उपलब्ध है क्योंकि पानी आवश्यक होने पर भी पैसा नहीं दिला पाता। शराब हानिकारक होने पर भी पैसा दिला देती है। किसी भी नई व्यवस्था में हमें केन्द्र में मनुष्य के हित को रखना होगा, पैसे के फायदे को नहीं। समाजवाद में पैसे को राज्य के हाथ में देकर यह समझ लिया गया कि शोषण समाप्त हो जायेगा पर हम इस बात को भूल गये कि राज्य को भी मनुष्य ही चलाते हैं, और यदि शोषण की मूल मनोवृत्ति समाप्त नहीं होती हो तो व्यक्तिगत रूप से व्यक्ति जितना शोषण कर सकता है, उससे कहीं अधिक शोषण वह राज्य सत्ता पाकर कर सकता है। शोषण के लिए हिसाब-किताबी मस्तिष्क और मनोवृत्ति चाहिए। जब तक उसके साथ हार्दिकता न जुड़े शोषण नहीं रुक सकता । व्यक्ति हिसाब-किताब लाखों करोड़ों में करता था। राज्य के हिसाब-किताब अरबों-खरबों में होते हैं। इतने विपुल धन को संभालने के लिए गगनचुम्बी इमारतें बनती हैं और सचिवालयों के लम्बे चौड़े भूल-भुलैया वाले गलियारे बनते हैं। सामान्य व्यक्ति यदि उसमें घुस जाये तो उसे यह पता ही नहीं लगता कि बाहर किधर से निकले। एक बार तो यह लगता है कि चीजें बहुत वैज्ञानिक तरीके से की जा रही हैं और इन कार्यालयों में दूध का दूध और पानी का पानी हो रहा है। लेकिन थोड़ा-सा कुरेदते ही पता चलता है कि वहां भाई भतीजावाद, जातिवाद, प्रान्तवाद और भाषावाद के सभी चक्र एक साथ घूम रहे हैं। सुविधा शुल्क के नाम से रिश्वत मजे से.ली दी जा रही है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003049
Book TitleMahapragna Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages372
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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