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________________ द्वितीय अध्याय मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में लेश्या जैन साहित्य में कषायोदय अनुरंजित योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा गया है। कषाय और योग चेतना के बाह्य और भीतरी दोनों स्तरों से जुड़े हैं। मनोविज्ञान की तरह इसका संबंध भी व्यवहार-जगत और मानसिक-जगत दोनों से है। आधुनिक मनोविज्ञान स्वतंत्र विज्ञान के रूप में पिछले दो सौ वर्षों से अस्तित्व में आया है जबकि लेश्या सिद्धान्त सदियों पुरानी शाश्वत आगम वाणी है। लेश्या और मनोविज्ञान का अध्ययन दोनों एक दूसरे के पूरक कहे जा सकते हैं। लेश्या भाव-जगत की सूक्ष्म व्याख्या करती है। यह प्राणी के आचरणों के मूल स्रोतों की व्याख्या में एक सशक्त भूमिका निभाती है। इसलिए मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के साथ यदि लेश्या की अवधारणा जुड़ जाती है तो चेतन-अचेतन के मनोविश्लेषण में चिन्तन और प्रयोगों को नयी दिशाएं मिल सकती हैं। यह केवल व्याख्या सूत्र ही नहीं, भाव परिवर्तन में भी महत्त्वपूर्ण चिकित्सा का काम कर सकती है। __ लेश्या का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करते समय प्रस्तुत अध्याय में मनोविज्ञान के संप्रत्यय पर संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है, क्योंकि आधुनिक मनोविज्ञान मन (Mind) और व्यवहार (Behaviour) तक सीमित है पर इसका मूल प्रतिपाद्य चेतना (Psyche) रहा है। अरस्तू ने उसे परिभाषित करते हुए कहा - मानव की आत्मा का अध्ययन करना मनोविज्ञान है। ईसा की सोलहवीं शताब्दी तक मनोविज्ञान आत्मा का विज्ञान (Science of Soul) माना जाता रहा । पर आत्मा का कोई निश्चित स्वरूप, आकार और रंग नहीं होने से उसका वैज्ञानिक अध्ययन संभव नहीं था, अत: मनोविज्ञान को मन/मस्तिष्क का विज्ञान (Science of Mind) मान लिया गया। इस मान्यता में भी कई कठिनाइयां आईं, क्योंकि मस्तिष्क का अर्थ व्यक्तिगत विवेक और विचारणा शक्ति से माना गया, जिसका अभाव पागलों अथवा सुप्त मनुष्यों में पाया जाता है। प्रयोगों के बीच जब यह ज्ञात हुआ कि मानसिक शक्तियां अलग-अलग कार्य नहीं करतीं अपितु एक साथ कार्य करती हैं तो मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान (Science of Consciousness) कहना अधिक उचित समझा गया। इस सन्दर्भ में विलियम जेम्स ने कहा कि मनोविज्ञान की सर्वश्रेष्ठ परिभाषा यह है कि यह चेतना की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन और व्याख्या करती है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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