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________________ 52 लेश्या और मनोविज्ञान ज्यों-ज्यों विशुद्ध होती है, शुभ योगों में परिणत होती है, कषाय मन्दता आती है तो नए कर्मों का बंध रुकता है और पुराने कर्मों का निर्जरण होता है। जैन आगम में कहा गया कि छद्मस्थ की शुक्ललेश्या से और केवली की शुक्ल लेश्या से कर्मों की निर्जरा होती है। इसीलिए इन्हें क्षायोपशमिक/क्षायिक भाव माना गया है।' शुभलेश्या को निरवद्य कह कर यह तथ्य स्पष्ट किया गया कि लेश्या से पुण्यबंध होने के कारण वह आश्रव है पर प्रथम चार आश्रव-मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग सावध है और शुभ योग से निर्जरा होती है इसलिए लेश्या निरवद्य है। आत्मा की वह विशुद्धावस्था जिसके कारण कर्मपुद्गल आत्मा से अलग होते हैं, भाव निर्जरा और कर्म परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य निर्जरा कहलाती है । इसे सविपाक और अविपाक भी कहा जाता है । जैन-दर्शन के अनुसार आत्मा सविपाक निर्जरा तो अनादि काल से करता आ रहा है लेकिन निर्वाण का लाभ प्राप्त नहीं कर सका। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - यह चेतन आत्मा कर्म के विपाक काल में सुखद और दुःखद फलों की अनुभूति करते हुए पुनः दुःख के बीज रूप आठ प्रकार के कर्मों का बन्ध कर लेता है, क्योंकि कर्म जब अपना विपाक फल देते हैं तो किसी निमित्त से देते हैं और अज्ञानी आत्मा शुभनिमित्त पर राग और अशुभ निमित्त पर द्वेष करके नवीन बन्ध कर लेता है। आध्यात्मिक जीवन का उद्देश्य है अलेश्य बनना। अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्धोपयोग तक पहुंचना जीवन का नैतिक साध्य है। लेश्या के सन्दर्भ में भी कहा जा सकता है कि लेश्या स्वयं मुक्ति पथ का बाधक तत्त्व है, क्योंकि इसे औदयिक भाव माना गया है पर जब अशुभ से शुभ तक पहुँचती है तो आत्मपरिणामों की विशुद्धता से निर्जरा और संवर जैसे मोक्षसाधक तत्त्वों से जुड़ जाती है और तेरहवें गुणस्थान तक अस्तित्व में रहती है। लेशी से अलेशी बनना हमारा आत्मिक उद्देश्य है। इसके लिए कर्म से अकर्म की ओर बढ़ना अत्यावश्यक है। कर्म से तात्पर्य केवल क्रिया या अक्रिया नहीं है। भगवान महावीर के शब्दों में - प्रमाद कर्म है, अप्रमाद अकर्म है। सूत्रकृतांग में अप्रमत्तावस्था में क्रिया भी अक्रिया बन जाती है और प्रमत्तावस्था में अक्रिया भी कर्मबन्धन का कारण हो जाती है। परम शुक्ललेश्या में प्रवेश करने का मतलब है - अकर्म बनने की पूर्ण तैयारी, पूर्ण जागरूकता। . 1. झीणी ज्ञान, 100, 101; 3. अनुयोगद्वार 275; 2. समयसार 389 4. सूत्रकृतांग 1/8/3 Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003048
Book TitleLeshya aur Manovigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size11 MB
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