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________________ ध्यान की ब्यूह-रचना / ४९ 'भगवान् जीवन के हर क्षेत्र में समत्व का प्रयोग कर रहे थे। वह भोजन के क्षेत्र में भी चल रहा था। उनके अस्वाद के प्रयोग समत्व के प्रयोग से भिन्न नहीं थे।' 'क्या वे स्वादिष्ट भोजन नहीं करते थे?' __'करते थे। भगवान् दीक्षा के दूसरे दिन कर्मारग्राम से विहार कर कोल्लाग सन्निवेश पहुंचे। वहां बहुल नाम का ब्राह्मण रहता था। भगवान् उसके घर गए। उसने भगवान् को घृत-शर्करायुक्त परमान्न (खीर) का भोजन दिया। 'भगवान् उत्तर वाचाला में विहार कर रहे थे। वहां नागसेन नाम का गृहपति रहता था। भगवान् उसके घर पर गए। उसने भगवान् को खीर का भोजन दिया।३ 'क्या वे नीरस भोजन नहीं लेते थे?' 'लेते थे। भगवान् सुवर्णखल से ब्राह्मण गांव गए। वह दो भागों में विभक्त था। नंद और उपनंद दोनों सगे भाई थे। एक भाग नंद का और दूसरा उपनंद का। भगवान् नंद के भाग मे भिक्षा के लिए गए। उन्हें नन्द के घर पर बासी भात मिला। ___ वाणिज्यग्राम में आनन्द नाम का गृहपति रहता था। उसके एक दासी थी उसका नाम था बहुला । वह रसोई बनाती थी। यह बासी भात को डालने के लिए बाहर जा रही थी। उस समय भगवान् वहां पहुंच गए। दासी ने भगवान् को देखा । वह दीन स्वर में बोली, भंते! अभी रसोई नहीं बनी है। यह बासी भात है। यदि आप लेना चाहें तो लें।' भगवान् ने हाथ आगे फैलाया। दासी ने बासी भात दिया।" ___ भगवान् की समत्व-साधना इतनी सुदृढ़ हो गई है कि अब उन्हें जैसा भी भोजन मिलता है, उसे समभाव से खा लेते हैं। उन्हें कभी सव्यंजन भोजन मिलता है और कभी नियंजन । कभी ठंडा भोजन मिलता है और कभी गर्म । कभी पुराने कुल्माष बुक्कस और पुलाक जैसा नीरस भोजन मिलता है और कभी परमान्न जैसा सरस भोजन । पर इन दोनों प्रकारों में उनकी मानसिक समता विखंडित नहीं होती। एक बार भगवान् ने रूक्ष भोजन का प्रयोग प्रारम्भ किया। इस प्रयोग में वे सिर्फ तीन वस्तुएं खाते थे - कोदू का ओदन, बैर का चूरण और कुल्माष । यह प्रयोग आठ महीने तक चला। भगवान् ने रसानुभूति का अधिकार रसना को दे दिया। मन उसके कार्य में हस्तक्षेप किया करता था। उसे अधिकार-मुक्त कर दिया। १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७० । २. साधना का दूसरा वर्ष। ३. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २७९ । ४. साधना का तीसरा वर्ष। ५. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २८३, २८४ । ६. साधना का ग्यारहवां वर्ष। ७. आवश्यकचूर्णि पूर्वभाग, पृ. ३००, ३०१ । ८. आयारो. ९।४।४.५.१३: आचारांगचर्णि.प. ३२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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