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________________ १५. पन्नगे च सुरेन्द्रे च, कौशिके पादसंस्पृशि । निर्विशेषमनस्काय, श्रीवीरस्वामिने नमः ॥' - इन्द्र चरणों में नमस्कार कर रहा था और चंडकौशिक नाग पैर को डस रहा था । उन दोनों के प्रति जिसका मन समान था उस महावीर को मैं नमस्कार करता हूं । १६. निशि दीपोम्बुधौ द्वीपं मरौ शाखी हिमे शिखी । " कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजः कणः ॥' - रात्रि में भटकते व्यक्ति को दीप, समुद्र में डूबते व्यक्ति को द्वीप, जेठ की दुपहरी में मरु में धूप से संतप्त व्यक्ति को वृक्ष और हिम में ठिठुरते व्यक्ति को अग्नि की भांति चरण-कमल का रजकण इस कलिकाल में प्राप्त हुआ है। १७. युगान्तरेषु भ्रान्तोस्मि त्वद्दर्शनविनाकृतः । नमोस्तु कलये यत्र त्वद्दर्शनमजायत ॥ - प्रभो ! तुम्हारा दर्शन प्राप्त नहीं हुआ तब मैं युगों तक भटकता रहा । इस कलिकाल को मेरा नमस्कार है। इसी में मुझे तुम्हारा दर्शन प्राप्त हुआ है। १८. इयं विरुद्धं भगवन्!, तव नान्यस्य कस्यचित् । निर्ग्रन्थता परा या च, या चोच्चैश्चक्रवर्त्तिता ॥ - भगवान् तुम्हारे जीवन में दो विरुद्ध बातें मिलती हैं - उत्कृष्ट निर्ग्रन्थता और उत्कृष्ट चक्रवर्त्तित्व । १९. शमोद्भुतोद्भुतं रूपं, सर्वात्मसु कृपाद्भुता । सर्वाद्भुतनिधीशाय तुभ्यं भगवते नमः ॥ -प्रभो ! तुम्हारी शान्ति अद्भुत है, अद्भुत है तुम्हारा रूप । सब जीवों के प्रति तुम्हारी कृपा अद्भुत है। तुम सब अद्भुतों की निधि के ईश हो। तुम्हें नमस्कार हो । २०. अनाहूतसहायस्त्वं, त्वमकारणवत्सलः। अनभ्यर्थितसाधुस्त्वं, त्वमसम्बन्धबान्धवः ॥ - भगवन्! तुम अनामंत्रित सहायक हो, अकारण वत्सल हो, अभ्यर्थना न करने पर भी हितकर हो, सम्बन्ध न होने पर भी बन्धु हो । २१. तथा परे न रज्यन्ते, उपकारेपरेऽपरे । तथापकारिणी भवान्, अहो ! सर्वमलौकिकम् ॥७ वंदना / २७१ १. योगशास्त्र : १ / २ | वंदनाकार — आचार्य हेमचन्द | २. वीतरागस्तव : ९/६ | ३. वीतरागस्तव : ९ । ७ । ४. वीतरागस्तव : १० । ६ । Jain Education International ५. वीतरागस्तव : १०/८ । ६. वीतरागस्तव : १३/१ । ७. वीतरागस्तव : १४१५ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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