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________________ अहिंसा के हिमालय पर हिंसा का वज्रपात / २४९ भगवान् ने कहा - 'वह समर्थ है पर अर्हत् को भस्म नहीं कर सकता। उन्हें केवल परितप्त कर सकता है। आनन्द ! तुम जाओ और सभी श्रमणों को सावधान कर दो कि यदि गोशालक यहां आए तो कोई उससे वाद-विवाद न करे, पूर्व घटना की स्मृति न दिलाए और उसका तिरस्कार न करे ।' आनन्द ने सब श्रमणों को भगवान् के आदेश की सूचना दे दी। वे अपना काम पूरा कर भगवान् के पास आ रहे थे, इतने में आजीवक संघ के साथ गोशालक वहां आ पहुंचा। उसने आते ही कहा 'ठीक है आयुष्मान् काश्यप ! तुमने मेरे बारे में यह कहा गोशालक मेरा शिष्य है । पर मैं तुम्हारा शिष्य नहीं हूं। जो तुम्हारा शिष्य था वह मर चुका । आयुष्यमान् काश्यप ! मैं सात शरीरान्त प्रवेश कर चुका हूं - १. सातवें मनुष्य भव में मैं उदायी कुंडियान था । राजगृह नगर के बाहर मण्डिकुक्ष - चैत्य में उदायी कुंडियान का शरीर छोड़कर मैंने ऐणेयक के शरीर में प्रवेश किया और बाईस वर्ष उसमें रहा । - २. उद्दंडपुर नगर के चन्द्रावतरण- चैत्य में ऐणेयक का शरीर छोड़ा और मल्लराम के शरीर में प्रवेश किया। बीस वर्ष उसमें रहा। - ३. चम्पा नगर के अंगमंदिर- चैत्य में मल्लराम का शरीर छोड़कर मंडित के शरीर में प्रवेश किया और अठारह वर्ष उसमें रहा । ४. वाराणसी नगरी में काममहावन में माल्यमंडित का शरीर छोड़कर रोह के शरीर में प्रवेश किया और उन्नीस वर्ष उसमें रहा । ५. आलभिया नगरी के पत्तकलाय - चैत्य में रोह के शरीर का त्याग कर भारद्वाज के शरीर में प्रवेश किया और अठारह वर्ष उसमें रहा । ६. वैशाली नगरी के कोडिन्यायन- चैत्य में गौतम-पुत्र अर्जुन के शरीर में प्रवेश कर सतरह वर्ष उसमें रहा । ७. श्रावस्ती में हालाहला की भांडशाला में अर्जुन के शरीर को छोड़कर इस गोशालक के शरीर में प्रवेश किया। इस शरीर में सोलह वर्ष रहने के पश्चात् सर्व दुःखों का अन्त करके मुक्त हो जाऊंगा । इस प्रकार आयुष्यमान् काश्यप ! एक सौ तेईस वर्ष में मैंने सात शरीरान्त परावर्तन किया है। ' Jain Education International गोशालक की बात सुनकर भगवान् बोले - 'गोशालक ! यह ठीक वैसे ही है, जैसे कोई चोर भाग रहा है। पकड़ने वाले लोग उसका पीछा कर रहे हैं। उसे छिपने के लिए कोई गढ़ा, दरी, गुफा, दुर्ग, पहाड़ निम्न-स्थल या विषम-स्थल नहीं मिल रहा है। उस समय वह एकाध ऊन के रेशे, सन के रेशे, रुई के रेशे या तृण के अग्रभाग से अपने को ढककर - ढका हुआ न होने पर भी वह मान ले कि मैं ढका हुआ हूं। तुम दूसरे न होते For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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