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________________ प्रवृत्ति बाहर में : मानदण्ड भीतर में भगवान् बुद्ध ने महानाम से कहा - 'एक समय मैं राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। उस समय बहुत से निर्ग्रन्थ ऋषिगिरि की कालशिला पर खड़े रहने का व्रत ले, आसन छोड़ तीव्र वेदना झेल रहे थे। तब मैं महानाम ! सायंकाल ध्यान से उठकर जहां ऋषिगिरि के पास कालशिला थी, वहां पर वे निर्ग्रन्थ थे, वहां गया। मैंने उनसे कहा - 'आयुष्मान् ! निर्ग्रन्थो ! तुम खड़े रहने का व्रत ले, आसन छोड़ तीव्र वेदना झेल रहे हो?' ऐसा कहने पर उन निर्ग्रन्थों ने कहा 'आयुष्मान् ! निर्ग्रन्थ नातपुत्त (महावीर) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। चलते, खड़े, सोते, जागते सदा निरन्तर उनको ज्ञानदर्शन उपस्थित रहता है। वे ऐसा कहते हैं - निर्ग्रन्थो ! जो तुम्हारा पहले किया हुआ कर्म है, उसे इस दुष्कर क्रिया (तपस्या) से नष्ट करो। इस समय काय, वचन और मन से संवृत रहो। इस प्रकार तपस्या से पुराने कर्मों का अन्त होने और नए कर्मों को न करने से भविष्य में चित्त अनास्रव ( निर्मल) होगा। भविष्य में आस्रव न होने से कर्म का क्षय होगा । कर्म-क्षय से दुःख का क्षय, दुःख-क्षय से वेदना का क्षय और वेदना -क्षय से सभी दुःख नष्ट होंगे। हमें यह विचार रुचता है। हम इससे संतुष्ट हैं । ' 'आयुष्मान् गौतम ! सुख से सुख प्राप्य नहीं है। दुःख से सुख निर्ग्रन्थों ने कहा प्राप्य है।' ४१ मज्झिमनिकाय के इस प्रसंग से स्पष्ट है कि भगवान् महावीर तपस्या और संवरइन दो धर्मों का प्रतिपादन करते थे। संचित जल को उलीच कर निकाल दिया जाए और जल आने के नाले को बन्द कर दिया जाए - यह है तालाब को खाली करने की प्रक्रिया । भगवान् महावीर काय, वचन और मन इन तीनों को बंधनकारक मानते थे I इसलिए भगवान् ने तीन संवरों का प्रतिपादन किया - १. कायसंवर- कायिक चंचलता का निरोध । २. वचनसंवर - मौन । ३. मनसंवर – ध्यान | काया को पीड़ा देना भगवान् को इष्ट नहीं था । किन्तु संवर की अर्हता पाने के प्रयत्न में काया को कष्ट हो तो उससे बचना भी उन्हें इष्ट नहीं था। खड़े रहने से बैठना और बैठने से सोना सुखद है, पर खड़े-खड़े ध्यान करने से जो शक्ति का वर्तुल बनता है, वह बैठे-बैठे और लेटे-लेटे ध्यान करने से नहीं बनता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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