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________________ यथार्थवादी व्यक्तित्व : अतिशयोक्ति का परिधान / २१५ लिए जल के एक हजार आठ कलश लेकर देव खड़े हुए, तब इन्द्र का मन आशंका से भर गया। क्या यह नवजात शिशु इतने जल-प्रवाह को सह लेगा? भगवान् ने अपने ज्ञान से यह जान लिया। वे अनन्तबली थे। उन्होंने मेरु के शिखर को अपने बाएं पैर के अंगूठे से थोड़ा-सा दबाया तो वह विशाल पर्वत कांप उठा । इन्द्र को अपने अज्ञान का भान हुआ । उसने क्षमायाचना की, फिर जलाभिषेक किया। यह घटना आगम - साहित्य में नहीं है। उसके व्याख्या - साहित्य में भी नहीं है। यह मिलती है काव्य - साहित्य में। कवि का सत्य वास्तविक सत्य से भिन्न होता है। उसका सत्य कल्पना से जन्म लेता है। वह जितना कल्पना - कुशल होता है, उतना ही उसका सत्य निखार पाता है। इस घटना का पहला कल्पना-शिल्पी कौन है, यह निश्चय की भाषा में नहीं कहा जा सकता। विमलसूरी के 'पउमचरिउ', रविषेण के 'पद्मपुराण' और हेमचन्द्र के 'त्रिषष्टि- शलाकापुरुषचरित्र' में इस घटना का उल्लेख है । जिस कवि ने इस घटना को महावीर के जीवन से जोड़ा, उसके मन में महावीर को कृष्ण से अधिक बलिष्ठ सिद्ध करने की कल्पना रही है। एक बार इन्द्र ने ग्वालों को कठिनाई में डाल दिया। उनकी सुरक्षा के लिए तरुण कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को हाथ से उठाया और सात दिन तक उसे उठाए रखा। भागवत का कृष्ण तरुण है । 'पउमचरिउ' का महावीर नवजात शिशु है। गोवर्धन पर्वत एक योजन का है और मेरु पर्वत लाख योजन का । कृष्ण ने गोवर्धन को हाथ से उठाया और महावीर ने मेरु को पैर के अंगूठे से प्रकम्पित कर दिया । 'पउमचरिउ' की कल्पना भागवत की कल्पना से कम नहीं है। शरीरबल के आधार पर कृष्ण महावीर से श्रेष्ठ नहीं हो सकते। २. कुमार वर्धमान आठ वर्ष के थे। वे एक दिन अपने साथी राजपुत्रों के साथ 'तिन्दुसक' क्रीड़ा कर रहे थे। उस समय इन्द्र ने उनके पराक्रम की प्रशंसा की। एक देव परीक्षा करने के लिए वहां पहुंचा। वह बच्चे का रूप बना उनके साथ क्रीड़ा करने लगा । एक वृक्ष को लक्ष्य बना कर दोनों दौड़े। वर्धमान ने उससे पहले वृक्ष को छू लिया। वे विजयी हो गए। वह पराजित हुआ। क्रीड़ा के नियमानुसार विजयी बच्चा पराजित बच्चे को घोड़ा बनाकर उस पर चढ़ता है। वर्धमान पराजित बच्चे को घोड़ा बना, उस पर चढ़कर क्रीड़ास्थल में आने लगे। उस समय उस बच्चे ने आकाश को छूने वाला रूप बना लिया । वर्धमान दैवी माया को समझ गये। उन्होंने एक मुष्टि का प्रहार किया । देव का विशाल शरीर उस मुष्टि-प्रहार से सिमट गया। उसे वर्धमान के पराक्रम का पता चल गया। उसे उस कार्य पर लज्जा का अनुभव हुआ । मानवीय पराक्रम के सामने उसका सिर झुक गया। १. आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० २४६-४८ Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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