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________________ २०८ / श्रमण महावीर - यह अहिंसा का संदेश 'सर्वजीवहिताय' है, इसलिए इसे सब तक पहुंचाओ। भगवान् महावीर अस्तित्व को देखते थे, इसलिए व्यक्तित्व उनके पथ में कोई सीमारेखा नहीं खींच पाता था। उस समय व्यक्तिवादी पुरोहित उच्च वर्ग के हितों का संरक्षण करते थे। उनका धर्म दो दिशाओं में चलता था। अभिजात वर्ग के लिए उनके धर्म की धारणा एक प्रकार की थी और निम्नवर्ग के लिए दूसरे प्रकार की। अभिजात वर्ग का धर्म है सेवा लेना और शूद्र का काम है सेवा देना और सब कुछ सहना । इस स्थिति को धर्म का संरक्षण प्राप्त हो गया था। भगवान् महावीर ने इसे सर्वथा अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा - 'इस धारणा में अभिजात वर्ग के हितों के संरक्षण का भद्दा प्रत्यन है। यह धर्म नहीं है, नितान्त अधर्म है। इससे सर्वजीवहिताय की भावना विखंडित होती है। इस अधर्म की उत्थापना के लिए भगवान् ने भिक्षुओं से कहा - 'भिक्षुओं ! तुम परिव्रजन करो तथा अभिजात और निम्न वर्ग को एक ही धर्म की शिक्षा दो। जो धर्म अभिजात वर्ग के लिए है वही निम्न वर्ग के लिए है और जो निम्न वर्ग के लिए है, वही अभिजात वर्ग के लिए है। दोनों के लिए मैंने एक ही धर्म का प्रतिपादन किया है।' व्यक्तित्व के भेद अस्तित्व की सीमा में प्रविष्ट नहीं होने चाहिए। धर्म का क्षेत्र अस्तित्व का क्षेत्र है। वह व्यक्तित्व के भेदों से मुक्त रहकर ही पवित्र रह सकता है। न्याय-दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम ने जल्प, वितण्डा और छल को तात्विक मान्यता दी। धर्म की सुरक्षा के लिए इन्हें विहित बतलाया। संगठन के संदर्भ में यह बहुत ही सूझ-बूझ की बात है। किन्तु अस्तित्व के सन्दर्भ में इनकी अर्हता नहीं है । भगवान् महावीर ने वाद-काल में भी अहिंसा को प्राथमिकता देने का सिद्धान्त निरूपित किया। जय और पराजय की बात व्यक्तिवादी के लिए विशिष्ट घटना हो सकती है, अस्तित्ववादी के लिए उसका विशेष अर्थ नहीं है । चेतना के जगत् में वाद करने वाले दोनों चेतनावान् हैं, समान चेतना के अधिकारी हैं, फिर कौन जीतेगा और कौन हारेगा? यह जय-पराजय की क्रीड़ा व्यक्तिवादी को ही शोभा दे सकती है। अस्तित्ववादी इस प्रपंच से मुक्त रहने में ही अपना श्रेय देखता है। वाद के विषय में भगवान् महावीर ने तीन तत्व प्रतिपादित किए - १. तत्व-जिज्ञासा का हेतु उपस्थित हो तभी वाद किया जाए। २. वाद-काल में जय-पराजय की स्थिति उत्पन्न न की जाए। ३. प्रतिवादी के मन में चोट पहुंचाने वाले हेतुओं और तर्कों का प्रयोग न किया जाए। अस्तित्ववादी की दृष्टि में व्यक्ति व्यक्ति नहीं होता, वह सत्य होता है, चैतन्य का रश्मिपुंज होता है। उसकी अन्तर्भेदी दृष्टि व्यक्तित्व के पार पहुंचकर अस्तित्व को खोजती १. आयारो, ४।३,४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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