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________________ १९८ / श्रमण महावीर ४. मुक्त-आत्मा सांत है या अनन्त? ५. किस मरण से मरता हुआ जीव जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है या घटाता है? स्कंदक का मन सन्देह से आलोड़ित हो उठा। वह इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सका। पिंगल ने इन प्रश्नों को फिर दोहराया। स्कंदक फिर मौन रहा। पिंगल उससे समाधान लिये बिना लौट आया। परिव्राजक-आवास में मुक्त गमन और मुक्त आगमन और मुक्त प्रश्न हृदय ही मुक्तता से ही सम्भव था। स्कंदक ने सुना, भगवान् महावीर कृतिंगला से विहार कर श्रावस्ती आ गए हैं। उसने सोचा - मैं भगवान् महावीर के पास जाऊं और इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करूं। उसे भगवान् महावीर के पास जाने और प्रश्नों का उत्तर पाने में कोई संकोच नहीं था। वह मुक्तभाव से भगवान् महावीर के पास गया। भगवान् ने मुक्तभाव से स्कंदक को उन प्रश्नों के उत्तर दिए। भगवान् ने कहा - 'स्कंदक! द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से लोक सांत है, काल और पर्याय की दृष्टि से लोक अनन्त है। इसी प्रकार जीव, मोक्ष और मुक्त-आत्मा भी द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से सांत है, काल और पर्याय की दृष्टि से अनन्त है। मरण दो प्रकार का होता है -- बाल मरण और पंडित मरण । बाल मरण से मरने वाला जीव जन्ममरण की परम्परा को बढ़ाता है और पंडित मरण से मरने वाला उसे घटाता है।' । भगवान् के उत्तर सुन स्कंदक परिव्राजक का मानस-चक्षु खुल गया। उसके मुक्त मानस ने स्वीकृति दी और वह महावीर के पास दीक्षित हो गया। ४. भगवान् महावीर राजगृह के गुणशीलक चैत्य में विहार कर रहे थे। उस चैत्य के आसपास अनेक अन्यतीर्थिक परिव्राजक रहते थे। एक दिन कालोदायी, शैलोदायी आदि कुछ परिव्राजक परस्पर बातचीत करने लगे। उनके वार्तालाप का विषय था भगवान् महावीर के पंचास्तिकाय का निरूपण । वे बोले - 'श्रमण महावीर पांच अस्तिकायों का निरूपण करते हैं - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय। इनमें पहले चार अस्तिकायों को वे अजीव बतलाते हैं और पांचवे अस्तिकाय को जीव। चार अस्तिकायों को वे अमूर्त बतलाते हैं और पुद्गलास्तिकाय को मूर्त । यह अस्तिकाय का सिद्धान्त कैसे माना जा सकता है? परिव्राजकों का वार्तलाप चल रहा था। उस समय उन्होंने श्रमणोंपासक मदुक को गुणशीलक चैत्य की ओर जाते हुए देखा। एक परिव्राजक ने प्रस्ताव किया – 'श्रमण महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं, यह हमें भली भांति ज्ञात है। फिर भी अच्छा है कि मदुक से इस विषय में और जानकारी प्राप्त कर लें।' इस प्रस्ताव पर सब सहमत १. भगवई, २।४४-५३ । २. तीर्थंकर काल का बाईसवां वर्ष । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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