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________________ १८८ / श्रमण महावीर 'मुद्गरपाणि! मैं तुम्हारी इस काष्ठ प्रतिमा से प्रवंचित हुआ हूं। मैंने व्यर्थ ही शत-शत कार्षापणों के पुष्प इसके सामने चढ़ाए हैं। यदि तुम यहां होते तो क्या तुम्हारे सामने यह दुर्घटना घटित होती? वह भावना के आवेश में इतना बहा कि अपनी स्मृति खो बैठा। अकस्मात् एक तेज आवाज हुई । मालाकार के बंधन टूट गए। उसका आकार विकराल हो गया। उसने मुद्गर उठाया और सातों को मौत के घाट उतार दिया। उसका आवेश अब भी शांत नहीं हुआ। अर्जुन की पुष्पवाटिका राजगृह के राजपथ के सन्निकट थी। उधर लोगों का आवागमन चलता था। पर यक्षायतन में घटित घटना का किसी को पता नहीं चला। मालाकार ने दूसरे दिन फिर सात पथिकों (छह पुरुष और एक स्त्री) की हत्या कर डाली। इस घटना से नगर में आतंक फैल गया। नगर के आरक्षिकों ने अनेक प्रयत्न किए पर उस पर नियंत्रण नहीं पा सके। सात मनुष्यों की हत्या करना अर्जुन का दैनिक कार्यक्रम बन गया। महाराज श्रेणिक के आदेश से राजगृह में यह घोषणा हो गई - 'मुद्गरपाणि-यक्षायतन की दिशा में कोई व्यक्ति न जाए।' इस घोषणा के साथ राजपथ अवरुद्ध हो गया। फिर भी कुछ भूले-भटके लोग उधर चले जाते और मालाकार के शिकार बन जाते । सात मनुष्यों की हत्या का यह सिलसिला लम्बे समय तक चलता रहा। छह गोष्ठिकों के पाप का प्रायश्चित्त न जाने कितने निरपराध लोगों को करना पड़ा। जिस राजगृह को भगवान् अभय का पाठ पढ़ा रहे थे, जहां भगवान् की अहिंसा सुरसरिता की भांति सतत प्रवाहित हो रही थी, जिसका कण-कण श्रद्धा और संयम की सुधा से अभिषिक्त हो रहा था, वह नगर आज भय से संत्रस्त, हिंसा से आतंकित और संदेह से उत्पीडित हो रहा था। यह महावीर के लिए चुनौती थी। यह चुनौती थी उनकी अहिंसा को, उनकी संकल्प-शक्ति को और उनके धर्म की समग्र धारणा को । भगवान् ने इस चुनौती को झेला। वे राजगृह पहुंचे और गुणशीलक चैत्य में ठहर गए। राजगृह के नागरिकों को भगवान् के आगमन का पता लग गया। पर कौन जाए? कैसे जाए? भगवान् महावीर और राजगृह के बीच में दिख रहा था सबको अर्जुन और उसका प्राणघाती मुद्गर। जनता के मन में उत्साह जागा पर समुद्र के ज्वार की भांति पुनः समाहित हो गया। सुदर्शन का उत्साह शान्त नहीं हुआ। उसने भगवान् की सन्निधि में जाने का निश्चय कर लिया। उसकी विदेह-साधना बहुत प्रबल थी। वह मौत के भय से अतीत हो चुका था। उसने अपने माता-पिता से कहा - 'अम्ब-तात! भगवान् महावीर गुणशीलक चैत्य में पधार गए हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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