SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ / श्रमण महावीर उसका धन्धा ही नहीं रहा, वह एक संस्कार बन गया। उन्हें मारे बिना कालसौकरिक को दिन सूना-सूना-सा लगता। उसने सम्राट के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। सम्राट ने इसे अपना अनादर मान कालसौकरिक को अन्धकूप में डलवा दिया। एक दिन-रात वहीं रखा। श्रेणिक ने भगवान् महावीर से निवेदन किया -- 'भंते ! मैंने कालसौकरिक से भैंसे मारने छुड़वा दिए हैं।' 'श्रेणिक! यह सम्भव नहीं हैं।' 'भंते ! वह अन्धकूप में पड़ा है। वह भैंसों को कहां से मारेगा? 'उसका हृदय-परिवर्तन नहीं हुआ है, फिर वह अपने प्रगाढ़ संस्कार को दंड-बल से कैसे छोड़ सकेगा?' 'तो क्या भगवान् यह कहते हैं कि उसने अन्धकूप में भी भैंसों को मारा है?' 'हां, मेरा आशय यही है।' 'भंते! यह कैसे सम्भव है?' 'क्या उस अन्धकूप में गीली मिट्टी नहीं है?' 'वह है, भंते!' 'उस मिट्टी का भैंसा नहीं बनाया जा सकता?' 'भंते ! बनाया जा सकता है।' 'इसलिए मैं कहता हूं कि कालसौकरिक दिन-भर भैंसो को मारता रहा है।' सम्राट् इस सत्य को समझ गया कि दण्ड-बल से हिंसा नहीं छुड़ाई जा सकती। वह हृदय-परिवर्तन से ही छूटती है। सम्राट् ने अन्धकूप के पास जाकर मरे हुए भैंसों को देखा और देखा की कालसौकरिक के क्रूर हाथ अब भी उन्हें मारने में लगे हुए हैं । सम्राट ने उसे मुक्त कर दिया। ___ कुछ वर्षों बाद कालसौकरिक मर गया। यह दुनिया बहुत विचित्र है। इसमें कोई भी प्राणी अमर नहीं होता। एक दिन मारने वाला भी मर जाता है। लोगों ने सुना, कालसौकरिक मर गया। परिवार के लोग आए और उसका दाह-संस्कार कर दिया। सुलस कालसौकरिक का पुत्र था। परिवार के लोगों ने उससे पिता का पद संभालने का अनुरोध किया। सुलस ने उसे ठुकरा दिया। मैं कसाई का धन्धा नहीं कर सकता।' उसने स्पष्ट शब्दों में अपनी भावना प्रकट कर दी। परिवार के लोग बड़े असमंजस में पड़ गए। सारा काम ठप्प हो गया। उन्होंने फिर अनुरोध किया। सुलस ने विनम्न शब्दों में कहा - 'मुझे जैसे मेरे प्राण प्रिय हैं वैसे ही दूसरों को अपने प्राण प्रिय हैं। फिर मैं अपने प्राणों की रक्षा के लिए दूसरों के प्राण कैसे लूट सकता हूं?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy