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________________ १७० / श्रमण महावीर दुःख का हेतु नहीं होता, इसलिए उसका सबल होना अच्छा है।' 'भंते! जीवों का आलसी होना अच्छा है या क्रियाशील?' 'कुछ जीवों का आलसी होना अच्छा है और कुछ जीवों का क्रियाशील होना अच्छा है।' 'भंते! ये दोनों कैसे?' 'असंयमी का आलसी होना अच्छा है, जिससे वह दूसरों का अहित न कर सके । ' 'संयमी का क्रियाशील होना अच्छा है, जिससे वह दूसरों का हित साध सके । " ४. स्कंदक परिव्राजक श्रावस्ती में रहता था । भगवान् कयंजला में पधारे। वह भगवान् के पास आया। भगवान् ने कहा 'स्कंदक! तुम्हारे मन में जिज्ञासा है कि लोक सान्त है या अनन्त ?' 'भंते! है । मैं इसका व्याकरण चाहता हूं।' 1 'मैं इसका सापेक्ष दृष्टि से व्याकरण करता हूं। उसके अनुसार लोक सान्त भी है और अनन्त भी है । ' 'भंते! यह कैसे ?' 'लोक एक है, इसलिए संख्या की दृष्टि से वह सान्त है । लोक असंख्य आकाश में फैला हुआ है, इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से वह अनन्त है। लोक था, है और होगा, इसलिए काल की दृष्टि से वह अनन्त है। लोक वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से युक्त है, इसलिए पर्याय की दृष्टि से वह अनन्त है । ३" अविरोध में विरोध देखने वाला एक चक्षु होता है और विरोध में अविरोध देखने वाला अनन्त चक्षु । भगवान् महावीर ने अनन्त चक्षु होकर सत्य को देखा और उसे रूपायित किया । १. भगवई, १२ ।५३-५८ । २. तीर्थंकर काल का ग्यारहवां वर्ष । ३. भगवई, २ । ४५ । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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