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________________ १२८ / श्रमण महावीर भगवान् ने निर्ग्रन्थों को सम्बोधित कर कहा - 'आर्यों ! निर्ग्रन्थ को प्रज्ञा, तप, गोत्र और आजीविका का मद नहीं करना चाहिए। जो इनका मद नहीं करता, वही सब गोत्रों से अतीत होकर अगोत्र-गति (मोक्ष) को प्राप्त होता है।" ३. भगवान् के संघ में सब गोत्रों के व्यक्ति थे। सब गोत्रों के व्यक्ति उनके सा में आते थे। उस समय नाम और गोत्र से सम्बोधित करने की प्रथा थी। उच्च गोत्र सम्बोधित होने वालों का अहं जागृत होता। नीच गोत्र से सम्बोधित व्यक्तियों में हीन भावना उत्पन्न होती । अहं और हीनता - ये दोनों विषमता के कीर्ति-स्तम्भ हैं। भगवान् को इनका अस्तित्व पसन्द नहीं था। भगवान् ने एक बार निर्ग्रन्थों को बुलाकर कहा - 'आर्यों! मेरी आज्ञा है कि कोई निर्ग्रन्थ किसी को गोत्र से सम्बोधित न करे।' ४. जैसे-जैसे भगवान् का समता का आन्दोलन बल पकड़ता गया, वैसे-वैसे जातीयता के जहरीले दांत काटने को आकुल होते गए। विषमता के रंगमंच पर नए-नए अभिनय शुरू हुए। ईश्वरीय सत्ता की दुहाई से समता के स्वर को क्षीण करने का प्रयत्न होने लगा। इधर मानवीय सत्ता के समर्थक सभी श्रमण सक्रिय हो गए। भगवान् बुद्ध का स्वर भी पूरी शक्ति से गूंजने लगा। श्रमणों का स्वर विषमता से व्यथित मानस को वर्षा की पहली फुहार जैसा लगा। इसका स्वागत उच्च गोत्रीय लोगों ने भी किया। क्षत्रिय इस आन्दोलन में पहले से ही सम्मिलित थे। ब्राह्मण और वैश्य भी इसमें सम्मिलित होने लगे। यह धर्म का आन्दोलन एक अर्थ में जन आन्दोलन बन गया। इसे व्यापक स्तर पर चलाना भिक्षुओं का काम था। भगवान् बड़ी सतर्कता से उनके संस्कारों को मांजते गए। एक बार कुछ मुनियों में यह चर्चा चली कि मुनि होने पर शरीर नहीं छूटता, तब गोत्र कैसे छूट सकता है? यह बात भगवान् तक पहुंची। तब भगवान् मुनि-कुल को बुलाकर कहा - 'आर्यों ! तुमने सर्प की केंचुली को देखा है?' 'हां, भंते ! देखा है।' 'आर्यों ! तुम जानते हो, उससे क्या होता है?' 'भंते ! केंचुली आने पर सर्प अन्धा हो जाता है।' 'आर्यों ! केंचुली के छूट जाने पर क्या होता है?' 'भंते! वह देखने लग जाता है।' १. सूयगडो, १ । १३ । १५, १६ः । पण्णामदं चेव तवोमदं च,णिण्णामए गोयमदं च भिक्खू । आजीवगं चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तमपोग्गले से ।। एयाई मदाई विगिंच धीरा, णेताणि सेवंति सधीरधम्मा । ते सव्वगोतावगता महेसी, उच्चं अगोतं च गतिं वयंति ॥ २. सूयगडो,११९ । २७: गोयावायं च णो वए । सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. २२५ : यथाकिं भो! ब्राह्मण क्षत्रिय काश्यपगोत्र इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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