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________________ ९२/ श्रमण महावीर सन्देह है। क्यों, ठीक है न?' इन्द्रभूति के पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। वे अवाक रह गए। अपने गढ़ संदेह का प्रकाशन उनके लिए पहेली बन गया। वे अपने आप से पूछने लगे - क्या महावीर सचमुच सर्वज्ञ हैं? इन्होंने मेरे मन के अन्तस्तल में पले हुए संदेह को कैसे जाना? मैंने आज तक अपना संदेह किसी के सामने प्रकट नहीं किया। फिर इन्हें उसका पता कैसे लगा? उन्होंने अपने आपको संबोधित कर कहा, 'इन्द्रभूति! आज तुम सचमुच किसी जाल में फंस रहे हो। इससे छुटकारा संभव नहीं । इसकी पकड़ मजबूत होती जा रही है।' भगवान् ने इन्द्रभूति को फिर संबोधित किया, 'इन्द्रभूति! तुम्हें अपने अस्तित्व में सन्देह क्यों? जिसका पूर्व और पश्चिम नहीं है, उसका मध्य कैसे होगा? वर्तमान का अस्तित्व ही अतीत और भविष्य के अस्तित्व का साक्ष्य है। एक परमाणु भी अपने अस्तित्व से च्युत नहीं होता तब मनुष्य अपने अस्तित्व से च्युत कैसे होगा? यह अमिट लौ है, जलती रही है और जलती रहेगी। इसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता।' । 'सूक्ष्म तत्व का अस्वीकार करें तो गतितत्व और आकाश को स्वीकार कैसे किया जाएगा? यह जीव इन्द्रियातीत सत्य है। इसे इन्द्रियों से अभिभूत मत करो, किन्तु अतीन्द्रियज्ञान से इसका साक्षात् करो।' __भगवान् की वाणी के पीछे सत्य बोल रहा था। इन्द्रभूति का ग्रन्थि-भेद हो गया। उन्हें अपने अस्तित्व की अनुभूति हुई। उनकी आंखों में बिजली कौंध गई। वे अपने अस्तित्व का साक्षात् करने को तड़प उठे। वे भावावेश में बोले, 'भंते! मैं आत्मा का साक्षात् करना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन करें और मुझे अपनी शरण में ले लें।' भगवान् ने कहा, 'जैसी तुम्हारी इच्छा।' । इन्द्रभूति ने अपने शिष्यों से मंत्रणा की। उन सबने अपने गुरु के पद-चिह्नों पर चलने की इच्छा प्रकट की। इन्द्रभूति अपने पांच सौ शिष्यों सहित भगवान् की शरण में आ गए, आत्म-साक्षात्कार की साधना में दीक्षित हो गए। इन्द्रभूति ने श्रमण-नेता के पास दीक्षित होकर ब्राह्मणों की गौरवमयी परम्परा के सिर पर फिर एक बार सुयश का कलश चढ़ा दिया। ब्राह्मण विद्वान् बहुत गुणग्राही और सत्यान्वेषी रहे हैं। उनकी गुणग्राहिता और सत्यान्वेषी मनोवृत्ति ने ही उन्हें सहस्राब्दियों तक विद्या और चरित्र में शिखरस्थ बनाए रखा है। इन्द्रभूति की दीक्षा का समाचार जल में तेल-बिन्दु की भांति सारे नगर में फैल गया। अग्निभूति और वायुभूति ने परस्पर मंत्रणा की। उन्होंने सोचा, 'भाई जिस जाल में फंसा है, वह साधारण तो नहीं है। फिर भी हमें उसकी मुक्ति का प्रयत्न करना चाहिए। __ अग्निभूति अपने पांच सौ शिष्यों के साथ इन्द्रभूति को उस इन्द्रजालिक के जाल से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003046
Book TitleShraman Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages334
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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