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________________ आशीवर्चन मनुष्य बुद्धि की परिक्रमा बहुत करता है पर उससे इष्ट उपलब्ध नहीं होता। देवता भीतर बैठा है उसकी उपलब्धि प्रज्ञा की परिक्रमा द्वारा ही संभव हो सकती है। वह आन्तरिक चेतना है। जो परम है या इष्ट है वह बाहर नहीं हैं इस विवेक चेतना को जगाने के लिए मुनि किशनलाल जी ने एक उपक्रम किया है। उसमें क्या धर्म है पंगु? "चैतन्य का स्फुरण एवं भौतिक विस्फोट" "अस्तित्व की अन्त हीन परिक्रमा", मन के सांप जो ध्यान से भागे, "भय मुक्त कैसे हो", शान्ति की खोज, "प्रेक्षा जागरूकता की प्रक्रिया।" आदि शीर्षकों में विषय को बांधा है। घाट और तटबन्ध दोनों का अपना-अपना मल्य है। घाट शून्य तट बन्ध बहुत अर्थवान नहीं होते और तट शून्य धारा छितर जाती है। सत्य की अभिव्यक्ति में भाव की धारा और शब्दों का तट बन्ध दोनों उपयुक्त होते हैं तभी सार्थकता जन्म लेती है। मुनीजी ने इन दोनों को एक साथ रखने का प्रयत्न किया है। इसलिए प्रस्तुत पुस्तक जनता के लिए उपयोगी बनेगी। यह सहज प्रतीति प्रेक्षा-ध्यान के संदर्भ में की जा सकती है। इसमें जो नए-नए उन्मेष सामने आ रहे हैं उन्हें समझने का एक अवसर मिलेगा। कृति के प्रति शुभाशंषा। जोधपुर आचार्य महाप्रज्ञ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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