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________________ मन के सांप, जो ध्यान से भागे श्रीमती जैन ग्रेटर कैलाश में रहती है, उसके पति की एक ट्रांजीस्टर बनाने की फैक्टरी है। दरियागंज में ऑफिस है। उनकी लड़की जिसका नाम मुझे पूरा स्मरण नहीं मैंने अरुणा ही लिखा है। ज्वर के आकस्मिक प्रकोप से उसका मानस विक्षिप्त हो गया। वह खाट पर लेटी छत पर पड़ी सलवटों को देख रही थी। उसके चेहरे की मायूसी अन्तर पीड़ा की कहानी कह रही थी। वह लगातार ज्वर से दुबली और पतझड़ के पीले पत्ते की तरह हो रही थी। डॉ० शर्मा उसका उपचार कर रहे थे, किन्तु ज्वर ने न जाने की कसम ही खा रखी थी। ज्यों-ज्यों समय व्यतीत हो रहा था, उसके स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा। पिछले तीन दिनों से उसमें इतना परिवर्तन आ गया, जिसे देख उसकी मम्मी चिन्तित हो उठी। 'अरुणा ! तुम्हारे लिए चाय बनाऊं, रसोई से मौसी ने पुकारा।' जो चाहो सो बनाओ। कम से कम मुझे पागल तो मत बनाओ। मम्मी ने उसके मुंह पर हाथ देते हुए टोका-"प्यारी बिटिया ! बड़ों को ऐसा बोलते हैं ?" 'तुम जानती नहीं कल उसने मन्दिर वाले बाबा से भस्म ला मेरे सिर में डाली थी, तब से मेरा सिर फटा जा रहा है। देख-देख चाय वाली केटली में सांप को उबाल रही है। री ! यह मेरे पीछे क्यों पड़ी है मम्मी ! तुम तो बड़ी समझदार हो, इसलिए तुम्हारे पर तो इस डाइन का कोई असर नहीं होता। मुझे और डैडी को तंग कर रही हैं।' तुझे हो क्या गया है ? ऐसे विचार कभी बड़ों के प्रति किए जाते हैं ? वह तुम्हारा कितना ख्याल रखती है ? समय पर खाना और अन्य सारी व्यवस्थाएं करती हैं। तुझे व्यवस्था और काम दिखाई दे रहा है। मेरे प्राण घुट रहे हैं। देखों यह केटली से सांप बाहर दौड़ रहे हैं। उबलती हुई चाय के धुएं में उसे सांप दिखाई दे रहे थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003045
Book TitlePragna ki Parikrama
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishanlalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size8 MB
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